tag:blogger.com,1999:blog-7712411430521325462024-02-08T02:45:56.896+05:30श्रीमद् भगवद् गीताRavi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comBlogger36125tag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-74096782124766370332014-05-22T22:40:00.000+05:302014-05-22T22:41:04.322+05:30॥ गीता का सार स्वरूप ॥<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_iQK5adJMz7-6AEH7PaOpWXGgaZkQ3UpUEqepVJp-8GCJwVImOtRFs-RCMy3E9cJJiZfY0yj_Gy_mJ98J3r3nbv5HJHPWWB2I7CO1rtiHc0BIcCh2vkdG-lACgmx7wJp_H7erSIrpxu5S/s1600/Gita+Sidhant.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_iQK5adJMz7-6AEH7PaOpWXGgaZkQ3UpUEqepVJp-8GCJwVImOtRFs-RCMy3E9cJJiZfY0yj_Gy_mJ98J3r3nbv5HJHPWWB2I7CO1rtiHc0BIcCh2vkdG-lACgmx7wJp_H7erSIrpxu5S/s640/Gita+Sidhant.jpg" width="640" /></a></div><br />
<div align="center"><strong><span style="font-size: x-large;">भगवान श्रीकृष्ण प्रत्येक इंसान से विभिन्न विषयों पर प्रश्न करते हैं और उन्हें माया रूपी संसार को मन से त्यागने को कहते हैं, भगवान का कहना है कि पूरी जिंदगी सुख पाने का एक और केवल एक ही रास्ता है और वह है उनके प्रति पूरा समर्पण।<br />
<br />
<span style="color: #006600;">तुम क्यों व्यर्थ चिंता करते हो? तुम क्यों भयभीत होते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा का न कभी जन्म होता है और न ही यह कभी मरता है।</span><br />
<br />
परिवर्तन संसार का नियम है, एक पल में आप करोड़ों के स्वामी हो जाते हो और दूसरे पल ही आपको ऐसा लगता है कि आपके पास कुछ भी नहीं है।<br />
<br />
<span style="color: #006600;">अपने आप को भगवान के हवाले कर दो, यही सर्वोत्तम सहारा है, जिसने इस शस्त्र-हीन सहारे को पहचान लिया है वह भय, चिंता और दु:खों से मुक्त हो जाता है।</span><br />
<br />
जो कुछ भी आज तुम्हारा है, कल किसी और का था और परसों किसी और का हो जाएगा, इसलिए माया के चकाचौंध में मत पड़ो। माया ही सारे दु:ख, दर्द का मूल कारण है।<br />
<br />
<span style="color: #006600;">न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो, यह शरीर पांच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश) से बना है और एक दिन यह शरीर इन्हीं में विलीन हो जाएगा।</span><br />
<br />
जो हुआ वह अच्छा ही हुआ है, जो हो रहा है वह अच्छा ही हो रहा है और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा। बीते समय के लिए पश्चाताप मत करो, आने वाले समय के लिए चिंता मत करो, जो समय चल रहा है केवल उसी पर ध्यान केन्द्रित करो।<br />
<br />
<span style="color: #006600;">तुम्हारा अपना क्या है, जिसे तुम खो दोगे? तुम क्या साथ लाए थे जिसका तुम्हें खोने का डर है? तुमने क्या जन्म दिया जिसके विनाश का डर तुम्हें सता रहा है? तुम अपने साथ कुछ भी नहीं लाए थे। हर कोई खाली हाथ ही आया है और मरने के बाद खाली हाथ ही जाएगा।</span></span></strong><br />
<span style="font-size: x-large;"><br />
</span><br />
<b><span style="font-size: x-large;">॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</span></b></div></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-19908008579309942172010-09-10T19:30:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.111+05:30अध्याय एक का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong>श्री पार्वती जी ने कहाः</strong> भगवन् ! आप सब तत्त्वों के ज्ञाता हैं, आपकी कृपा से मुझे श्रीविष्णु-सम्बन्धी नाना प्रकार के धर्म सुनने को मिले, जो समस्त लोक का उद्धार करने वाले हैं, देवादिदेव ! अब मैं गीता का माहात्म्य सुनना चाहती हूँ, जिसका श्रवण करने से श्री हरि की भक्ति बढ़ती है।<br />
<br />
<strong>श्री महादेवजी बोलेः</strong> जिनका श्री विग्रह अलसी के फूल की भाँति श्याम वर्ण का है, पक्षीराज गरूड़ ही जिनके वाहन हैं, जो अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं, उन भगवान महाविष्णु की हम उपासना करते हैं। एक समय की बात है, मुर दैत्य के नाशक भगवान विष्णु शेषनाग के रमणीय आसन पर सुख-पूर्वक विराजमान थे, उस समय समस्त लोकों को आनन्द देने वाली भगवती लक्ष्मी ने आदर-पूर्वक प्रश्न किया।<br />
<br />
<strong>श्रीलक्ष्मीजी ने पूछाः</strong> भगवन ! आप सम्पूर्ण जगत का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्य के प्रति उदासीन से होकर जो इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है?<br />
<br />
<strong>श्रीभगवान बोलेः</strong> सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूँ, अपितु तत्त्व का अनुसरण करने वाली अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर स्वरुप का साक्षात्कार कर रहा हूँ। यह वही तेज है, जिसका योगी पुरुष कुशाग्र बुद्धि के द्वारा अपने अन्तःकरण में दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान वेदों का सार-तत्त्व निश्च्चित करते हैं। वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाश स्वरूप, आत्म रूप, रोग-शोक से रहित, अखण्ड आनन्द का पुंज, निष्पन्द तथा द्वैत-रहित है, इस जगत का जीवन उसी के अधीन है, उसी का अनुभव करता हूँ, देवेश्वरी ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता सा प्रतीत हो रहा हूँ।<br />
<br />
<strong>श्रीलक्ष्मीजी ने कहाः</strong> अन्तर्यामी ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं, आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करने योग्य तत्त्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है, इस चराचर जगत की सृष्टि और संहार करने वाले स्वयं आप ही हैं, आप सर्व-समर्थ हैं, इस प्रकार की स्थिति में होकर भी यदि आप उस परम तत्त्व से भिन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये।<br />
<br />
<strong>श्री भगवान बोलेः</strong> प्रिये ! आत्मा का स्वरूप द्वैत और अद्वैत से पृथक, भाव और अभाव से मुक्त तथा आदि और अन्त से रहित है, शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होने वाला तथा परमानन्द स्वरूप होने के कारण एक मात्र सुन्दर है, वही मेरा ईश्वरीय रूप है, आत्मा का एकत्व ही सबके द्वारा जानने योग्य है। गीता-शास्त्र में इसी का प्रतिपादन हुआ है, अमित तेजस्वी भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर लक्ष्मी देवी ने शंका उपस्थित करते हुए कहाः भगवन ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परम-आनन्दमय और मन-वाणी की पहुँच के बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध कराती है? मेरे इस संदेह का निवारण कीजिए।<br />
<br />
<strong>श्री भगवान बोलेः</strong> सुन्दरी ! सुनो, मैं गीता में अपनी स्थिति का वर्णन करता हूँ, क्रमश पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरणकमल जानो, इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की वाङमयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिए, यह ज्ञानमात्र से ही महान पातकों का नाश करने वाली है, जो उत्तम बुद्धिवाला पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक, आधे या चौथाई श्लोक का भी प्रति-दिन अभ्यास करता है, वह सुशर्मा के समान मुक्त हो जाता है।<br />
<br />
<strong>श्री लक्ष्मीजी ने पूछाः</strong> भगवन ! सुशर्मा कौन था? किस जाति का था और किस कारण से उसकी मुक्ति हुई?<br />
<br />
<strong>श्रीभगवान बोलेः</strong> प्रिय ! सुशर्मा बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था और पापियों का तो वह शिरोमणि ही था। उसका जन्म वैदिक ज्ञान से शून्य और क्रूरता-पूर्ण कर्म करने वाले ब्राह्मणों के कुल में हुआ था, वह न ध्यान करता था, न जप, न होम करता था न अतिथियों का सत्कार, वह मूढ होने के कारण सदा विषयों के सेवन में ही लगा रहता था, हल जोतता और पत्ते बेचकर जीविका चलाता था, उसे मदिरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था, इस प्रकार उसने अपने जीवन का दीर्घकाल व्यतीत कर दिया।<br />
<br />
एक दिन मूढ़-बुद्धि सुशर्मा पत्ते लाने के लिए किसी ऋषि की वाटिका में घूम रहा था, इसी बीच मे काल रूप धारी काले साँप ने उसे डँस लिया, सुशर्मा की मृत्यु हो गयी, तदनन्तर वह अनेक नरकों में जा वहाँ की यातनाएँ भोग कर मृत्यु-लोक में लौट आया और वहाँ बोझ ढोने वाला बैल हुआ, उस समय किसी पंगु ने अपने जीवन को आराम से व्यतीत करने के लिए उसे खरीद लिया, बैल ने अपनी पीठ पर पंगु का भार ढोते हुए बड़े कष्ट से सात-आठ वर्ष बिताए, एक दिन पंगु ने किसी ऊँचे स्थान पर बहुत देर तक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया, इससे वह थककर बड़े वेग से पृथ्वी पर गिरा और मूर्च्छित हो गया। <br />
<br />
उस समय वहाँ कुतूहल-वश आकृष्ट हो बहुत से लोग एकत्रित हो गये, उस जन-समुदाय में से किसी पुण्यात्मा व्यक्ति ने उस बैल का कल्याण करने के लिए उसे अपना पुण्य दान किया, तत्पश्चात् कुछ दूसरे लोगों ने भी अपने-अपने पुण्यों को याद करके उन्हें उसके लिए दान किया, उस भीड़ में एक वेश्या भी खड़ी थी, उसे अपने पुण्य का पता नहीं था तो भी उसने लोगों की देखा-देखी उस बैल के लिए कुछ त्याग किया।<br />
<br />
तदनन्तर यमराज के दूत उस मरे हुए प्राणी को पहले यमपुरी में ले गये, वहाँ यह विचार कर कि यह वेश्या के दिये हुए पुण्य से पुण्यवान हो गया है, उसे छोड़ दिया गया फिर वह भूलोक में आकर उत्तम कुल और शील वाले ब्राह्मणों के घर में उत्पन्न हुआ, उस समय भी उसे अपने पूर्व जन्म की बातों का स्मरण बना रहा, बहुत दिनों के बाद अपने अज्ञान को दूर करने वाले कल्याण-तत्त्व का जिज्ञासु होकर वह उस वेश्या के पास गया और उसके दान की बात बतलाते हुए उसने पूछाः 'तुमने कौन सा पुण्य दान किया था?' <br />
<br />
वेश्या ने उत्तर दियाः 'वह पिंजरे में बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढ़ता है, उससे मेरा अन्तःकरण पवित्र हो गया है, उसी का पुण्य मैंने तुम्हारे लिए दान किया था।' इसके बाद उन दोनों ने तोते से पूछा, तब उस तोते ने अपने पूर्वजन्म का स्मरण करके प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया।<br />
<br />
<strong>तोता बोलाः</strong> पूर्वजन्म में मैं विद्वान होकर भी विद्वता के अभिमान से मोहित रहता था, मेरा राग-द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान विद्वानों के प्रति भी ईर्ष्या भाव रखने लगा, फिर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृणित लोकों में भटकता फिरा, उसके बाद इस लोक में आया, सदगुरु की अत्यन्त निन्दा करने के कारण तोते के कुल में मेरा जन्म हुआ, पापी होने के कारण छोटी अवस्था में ही मेरा माता-पिता से वियोग हो गया, एक दिन मैं ग्रीष्म ऋतु में तपे मार्ग पर पड़ा था, वहाँ से कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाये और महात्माओं के आश्रय में आश्रम के भीतर एक पिंजरे में उन्होंने मुझे डाल दिया। <br />
<br />
वहीं मुझे पढ़ाया गया, ऋषियों के बालक बड़े आदर के साथ गीता के प्रथम अध्याय का अध्यन करते थे, उन्हीं से सुनकर मैं भी बार-बार पाठ करने लगा, इसी बीच में एक चोरी करने वाले बहेलिये ने मुझे वहाँ से चुरा लिया, तत्पश्चात् इस देवी ने मुझे खरीद लिया, पूर्व काल में मैंने इस प्रथम अध्याय का अभ्यास किया था, जिससे मैंने अपने पापों को दूर किया है, फिर उसी से इस वेश्या का भी अन्तःकरण शुद्ध हुआ है और उसी के पुण्य से ये द्विज-श्रेष्ठ सुशर्मा भी पाप-मुक्त हुए हैं।<br />
<br />
इस प्रकार परस्पर वार्तालाप और गीता के प्रथम अध्याय के माहात्म्य की प्रशंसा करके वे तीनों निरन्तर अपने-अपने घर पर गीता का अभ्यास करने लगे, फिर ज्ञान प्राप्त करके वे मुक्त हो गये, इसलिए जो गीता के प्रथम अध्याय को पढ़ता, सुनता तथा अभ्यास करता है, उसे इस भव-सागर को पार करने में कोई कठिनाई नहीं होती।.....<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-51602648691094723702010-09-01T20:15:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.136+05:30अध्याय एक - कर्मयुद्ध-योग<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEisyQgQmCKup2EVJLrE-HmpCganbjfpOUn_ykLV15WNktxp-QUiutu-KP-c120d0gGQTMVPehA7eLnqzyMLxRoVfYWIdqL-9TrZxWPkroiosl7HxxZx5m6Sd9S15dFCId2BmKDrO8eik95C/s1600/Gita+(1).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEisyQgQmCKup2EVJLrE-HmpCganbjfpOUn_ykLV15WNktxp-QUiutu-KP-c120d0gGQTMVPehA7eLnqzyMLxRoVfYWIdqL-9TrZxWPkroiosl7HxxZx5m6Sd9S15dFCId2BmKDrO8eik95C/s400/Gita+(1).jpg" width="400" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (योद्धाओं की गणना और सामर्थ्य) </b></span><b><br />
</b><br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।<br />
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ (१) </span></div><br />
भावार्थ : धृतराष्ट्र ने कहा - हे संजय! धर्म-भूमि और कर्म-भूमि में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे पुत्रों और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? (१)<br />
<br />
<div align="center">संजय उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">दृष्टा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।<br />
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ (२)</span></div><br />
भावार्थ : संजय ने कहा - हे राजन्! इस समय राजा दुर्योधन पाण्डु पुत्रों की सेना की व्यूह-रचना को देखकर आचार्य द्रोणाचार्य के पास जाकर कह रहे हैं। (२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।<br />
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ (३)</span></div><br />
भावार्थ : हे आचार्य! पाण्डु पुत्रों की इस विशाल सेना को देखिए, जिसे आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न ने इतने कौशल से व्यूह के आकार में सजाया है। (३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।<br />
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ (४)</span></div><br />
भावार्थ : इस युद्ध में भीम तथा अर्जुन के समान अनेकों महान शूरवीर और धनुर्धर है, युयुधान, विराट और द्रुपद जैसे भी महान योद्धा है। (४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।<br />
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥ (५)</span></div><br />
भावार्थ : धृष्टकेतु, चेकितान तथा काशीराज जैसे महान शक्तिशाली और पुरुजित्, कुन्तीभोज तथा शैब्य जैसे मनुष्यों मे श्रेष्ठ योद्धा भी है। (५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।<br />
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ (६)</span></div><br />
भावार्थ : युधामन्यु जैसे महान पराक्रमी तथा उत्तमौजा जैसे अत्यन्त शक्तिशाली, सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पुत्रों सहित ये सभी महान योद्धा हैं। (६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।<br />
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥ (७)</span></div><br />
भावार्थ : हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! हमारी तरफ़ के भी उन विशेष शक्तिशाली योद्धाओं को भी जान लीजिये और आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के उन योद्धाओं के बारे में बतलाता हूँ। (७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।<br />
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ (८)</span></div><br />
भावार्थ : मेरी सेना में स्वयं आप-द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा जैसे योद्धा है, जो सदैव युद्ध में विजयी रहे हैं। (८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।<br />
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ (९)</span></div><br />
भावार्थ : ऎसे अन्य अनेक शूरवीर भी है जो मेरे लिये अपने जीवन का बलिदान देने के लिये अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित है और यह सभी युद्ध-विधा में निपुण है। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।<br />
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ (१०)</span></div><br />
भावार्थ : इस प्रकार भीष्म पितामह द्वारा अच्छी प्रकार से संरक्षित हमारी सेना की शक्ति असीमित है, किन्तु भीम द्वारा अच्छी प्रकार से संरक्षित होकर भी पांडवों की सेना की शक्ति सीमित है। (१०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।<br />
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ (११)</span></div><br />
भावार्थ : अत: सभी मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहकर आप सभी निश्चित रूप से भीष्म पितामह की सभी ओर से सहायता करें। (११)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (योद्धाओं द्वारा शंख-ध्वनि) </b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।<br />
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान् ॥ (१२)</span></div><br />
भावार्थ : तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम-प्रतापी पितामह भीष्म ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए सिंह-गर्जना के समान उच्च स्वर से शंख बजाया। (१२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।<br />
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ (१३)</span></div><br />
भावार्थ : तत्पश्चात् अनेक शंख, नगाड़े, ढोल, मृदंग और सींग आदि बाजे अचानक एक साथ बज उठे, उनका वह शब्द बड़ा भयंकर था। (१३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।<br />
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥ (१४)</span></div><br />
भावार्थ : तत्पश्चात् दूसरी ओर से सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ पर आसीन योगेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए। (१४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।<br />
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥ (१५)</span></div><br />
भावार्थ : हृदय के सर्वस्व ज्ञाता श्रीकृष्ण ने "पाञ्चजन्य" नामक, अर्जुन ने "देवदत्त" नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने "पौण्ड्र" नामक महाशंख बजाया। (१५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।<br />
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ (१६)</span></div><br />
भावार्थ : हे राजन! कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने "अनन्तविजय" नामक और नकुल तथा सहदेव ने "सुघोष" और "मणिपुष्पक" नामक शंख बजाए। (१६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।<br />
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ (१७)<br />
<br />
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।<br />
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥ (१८)</span></div><br />
भावार्थ : श्रेष्ठ धनुष वाले काशीराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और कभी न हारने वाला सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु आदि सभी ने अलग-अलग शंख बजाए। (१७-१८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।<br />
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ (१९)</span></div><br />
भावार्थ : उस भयंकर ध्वनि ने आकाश और पृथ्वी को गुंजायमान करते हुए धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय में शोक उत्पन्न कर दिया। (१९)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (अर्जुन द्वारा सैन्य-निरीक्षण) </b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाचः<br />
<span style="color: #3333ff;">अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।<br />
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ (२०)<br />
<br />
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।<br />
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ (२१)</span></div><br />
भावार्थ : हे राजन्! इसके बाद हनुमान से अंकित पताका लगे रथ पर आसीन पाण्डु पुत्र अर्जुन ने धनुष उठाकर तीर चलाने की तैयारी के समय धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखकर हृदय के सर्वस्व ज्ञाता श्री कृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहा कि हे अच्युत! कृपा करके मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खडा़ करें। (२०-२१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।<br />
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ (२२)</span></div><br />
भावार्थ : जिससे मैं युद्धभूमि में उपस्थित युद्ध की इच्छा रखने वालों को देख सकूँ कि इस युद्ध में मुझे किन-किन से एक साथ युद्ध करना है। (२२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।<br />
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ (२३)</span></div><br />
भावार्थ : मैं उनको भी देख सकूँ जो यह राजा लोग यहाँ पर धृतराष्ट् के दुर्बुद्धि पुत्र दुर्योधन के हित की इच्छा से युद्ध करने के लिये एकत्रित हुए हैं। (२३)<br />
<br />
<div align="center">संजय उवाचः<br />
<span style="color: #3333ff;">एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।<br />
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ (२४)</span></div><br />
भावार्थ : संजय ने कहा - हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृदय के पूर्ण ज्ञाता श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस उत्तम रथ को खड़ा कर दिया। (२४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।<br />
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥ </span></div><br />
भावार्थ : इस प्रकार भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण तथा संसार के सभी राजाओं के सामने कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए एकत्रित हुए इन सभी कुरु वंश के सद्स्यों को देख। (२५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् ।<br />
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥ (२६)</span></div><br />
भावार्थ : वहाँ पृथापुत्र अर्जुन ने अपने ताऊओं-चाचाओं को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को और मित्रों को देखा। (२६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।<br />
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ॥ (२७)</span></div><br />
भावार्थ : कुन्ती-पुत्र अर्जुन ने ससुरों को और शुभचिन्तकों सहित दोनों तरफ़ की सेनाओं में अपने ही सभी सम्बन्धियों को देखा। (२७)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (अर्जुन की अज्ञानता का निरूपण ) </b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत् ।<br />
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥ (२८)</span></div><br />
भावार्थ : तब करुणा से अभिभूत होकर शोक करते हुए अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! युद्ध की इच्छा वाले इन सभी मित्रों तथा सम्बन्धियों को उपस्थित देखकर। (२८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।<br />
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥ (२९)</span></div><br />
भावार्थ : मेरे शरीर के सभी अंग काँप रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है, और मेरे शरीर के कम्पन से रोमांच उत्पन्न हो रहा है। (२९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।<br />
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ (३०)</span></div><br />
भावार्थ : मेरे हाथ से गांडीव धनुष छूट रहा है और त्वचा भी जल रही है, मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा भी नही रह पा रहा हूँ। (३०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।<br />
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ (३१)</span></div><br />
भावार्थ : हे केशव! मुझे तो केवल अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नही देता है। (३१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।<br />
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ (३२)</span></div><br />
भावार्थ : हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न ही राज्य और सुखों की इच्छा करता हूँ, हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य, सुख अथवा इस जीवन से भी क्या लाभ है। (३२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।<br />
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ (३३)</span></div><br />
भावार्थ : जिनके साथ हमें राज्य आदि सुखों को भोगने की इच्छा हैं, जब वह ही अपने जीवन के सभी सुखों को त्याग करके इस युद्ध भूमि में खड़े हैं। (३३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।<br />
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥ (३४)</span></div><br />
भावार्थ : गुरुजन, परिवारीजन, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले और सभी सम्बन्धी भी मेरे सामने खडे़ है। (३४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।<br />
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ (३५)</span></div><br />
भावार्थ : हे मधुसूदन! मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता हूँ, भले ही यह सभी मुझे ही मार डालें, तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है? (३५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।<br />
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ॥(३६)</span></div><br />
भावार्थ : हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी? बल्कि इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। (३६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।<br />
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ (३७)</span></div><br />
भावार्थ : हे माधव! अत: मुझे धृतराष्ट्र के पुत्रों को उनके मित्रों और सम्बन्धियों सहित मारना उचित नही लगता है, क्योंकि अपने ही कुटुम्बियों को मार कर हम कैसे सुखी हो सकते हैं? (३७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।<br />
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ (३८) </span></div><br />
भावार्थ : यधपि लोभ के कारण इन भ्रमित चित्त वालों को कुल के नाश से उत्पन्न होने वाले दोष दिखाई नही देते हैं, और मित्रों से विरोध करने में कोई पाप दिखाई नही देता है।<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।<br />
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ (३९) </span></div><br />
भावार्थ : हे जनार्दन! हम लोग तो कुल के नाश से उत्पन्न दोष को समझने वाले हैं क्यों न हमें इस पाप से बचने के लिये विचार करना चाहिये। (३९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।<br />
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ (४०)</span></div><br />
भावार्थ : कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में अधर्म फैल जाता है। (४०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।<br />
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥ (४१)</span></div><br />
भावार्थ : हे कृष्ण! अधर्म अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं, स्त्रियों के दूषित हो जाने पर अवांछित सन्ताने उत्पन्न होती है। (४१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।<br />
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ (४२)</span></div><br />
भावार्थ : अवांछित सन्तानों की वृद्धि से निश्चय ही कुल में नारकीय जीवन उत्पन्न होता है, ऎसे पतित कुलों के पितृ गिर जाते है क्योंकि पिण्ड और जल के दान की क्रियाऎं समाप्त हो जाती है। (४२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।<br />
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ (४३)</span></div><br />
भावार्थ : इन अवांछित सन्तानो के दुष्कर्मों से सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं। (४३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।<br />
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ (४४)</span></div><br />
भावार्थ : हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में रहना पडता है, ऐसा हम सुनते आए हैं। (४४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।<br />
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ (४५)</span></div><br />
भावार्थ : ओह! कितने आश्चर्य की बात है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से अपने प्रियजनों को मारने के लिए आतुर हो गए हैं। (४५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।<br />
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ (४६)</span></div><br />
भावार्थ : यदि मुझ शस्त्र-रहित विरोध न करने वाले को, धृतराष्ट्र के पुत्र हाथ में शस्त्र लेकर युद्ध में मार डालें तो भी इस प्रकार मरना मेरे लिए अधिक श्रेयस्कर होगा। (४६)<br />
<br />
<div align="center">संजय उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।<br />
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ (४७)</span></div><br />
भावार्थ : संजय ने कहा - इस प्रकार शोक से संतप्त हुआ मन वाला अर्जुन युद्ध-भूमि में यह कहकर बाणों सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया। (४७)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे कृष्णार्जुनसंवादे धर्मकर्मयुद्धयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः॥</span><br />
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद भगवदगीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में धर्मकर्मयुद्ध-योग नाम का पहला अध्याय संपूर्ण हुआ॥<br />
<br />
<span style="color: #006600;"><b> ॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥ </b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-36280269851199151632010-08-30T20:30:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.124+05:30अध्याय दो का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong>श्री भगवान कहते हैं: </strong>प्रिये! अब दूसरे अध्याय के माहात्म्य बतलाता हूँ। दक्षिण दिशा में वेदवेत्ता ब्राह्मणों के पुरन्दरपुर नामक नगर में देव शर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहता था, वह अतिथियों की सेवा करने वाला, स्वाध्याय-शील, वेद-शास्त्रों का विशेषज्ञ, यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला और तपस्वियों के सदा ही प्रिय था।<br />
<br />
उसने उत्तम द्रव्यों के द्वारा अग्नि में हवन करके दीर्घकाल तक देवताओं को तृप्त किया, किंतु उस धर्मात्मा ब्राह्मण को कभी सदा रहने वाली शान्ति नही मिली, वे परम कल्याणमय तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रतिदिन प्रचुर सामग्रियों के द्वारा सत्य संकल्प वाले तपस्वियों की सेवा करने लगा। एक दिन इस प्रकार शुभ आचरण करते हुए उसके समक्ष एक त्यागी संत प्रकट हुए, वे पूर्ण अनुभवी, शान्त-चित्त थे, निरन्तर परमात्मा के चिन्तन में संलग्न होकर वे सदा आनन्द विभोर रहते थे। उन नित्य सन्तुष्ट तपस्वी संत को शुद्ध-भाव से प्रणाम करके.....<br />
<br />
<strong>देव शर्मा ने पूछा: </strong>'महात्मन ! मुझे सदा रहने वाली शान्ति कैसे प्राप्त होगी?' तब उन.....<br />
<br />
<strong>आत्म-ज्ञानी संत ने कहा: </strong>ब्रह्मन् ! सौपुर ग्राम का निवासी मित्रवान, जो बकरियों का चरवाहा है, 'वही तुम्हें उपदेश देगा।' यह सुनकर देव शर्मा ने महात्मा के चरणों की वन्दना की और सौपुर ग्राम के लिये चल दिया, समृद्ध-शाली सौपुर ग्राम में पहुँच कर उसने उत्तर भाग में एक विशाल वन देखा, उसी वन में नदी के किनारे एक शिला पर मित्रवान बैठा था, उसके नेत्र आनन्द से निश्चल हो रहे थे, वह अपलक दृष्टि से देख रहा था।<br />
<br />
वह स्थान आपस का स्वाभाविक वैर छोड़कर एकत्रित हुए परस्पर विरोधी जन्तुओं से घिरा था, जहाँ उद्यान में मन्द-मन्द वायु चल रही थी, मृगों के झुण्ड शान्त-भाव से बैठे थे और मित्रवान दया से भरी हुई आनन्द विभोर दृष्टि से पृथ्वी पर मानो अमृत छिड़क रहा था, इस रूप में उसे देखकर देव शर्मा का मन प्रसन्न हो गया, वे उत्सुक होकर बड़ी विनय के साथ मित्रवान के पास गया। मित्रवान ने भी अपने मस्तक को झुकाकर देव शर्मा का सत्कार किया, तदनन्तर विद्वान ब्राह्मण देव शर्मा अनन्य चित्त से मित्रवान के समीप गया और जब उसके ध्यान का समय समाप्त हो गया। तब.....<br />
<br />
<strong>देव शर्मा ने पूछा: </strong>'महाभाग ! मैं आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ, मेरे इस मनोरथ की पूर्ति के लिए मुझे किसी उपाय का उपदेश कीजिए, जिसके द्वारा परम-सिद्धि की प्राप्ति हो सके।' देवशर्मा की बात सुनकर एक क्षण तक कुछ विचार करने के बाद.....<br />
<br />
<strong>मित्रवान ने कहाः </strong>'महानुभाव ! एक समय की बात है, मैं वन के भीतर बकरियों की रक्षा कर रहा था, इतने में ही एक भयंकर बाघ पर मेरी दृष्टि पड़ी, जो मानो सब को खा लेना चाहता था, मैं मृत्यु से डरता था, इसलिए बाघ को आते देख बकरियों के झुंड को आगे करके वहाँ से भाग चला, किंतु एक बकरी तुरन्त ही सारा भय छोड़कर नदी के किनारे उस बाघ के पास चली गयी, फिर तो बाघ भी द्वेष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गया। बाघ को इस अवस्था में देखकर.....<br />
<br />
<strong>बकरी बोली: </strong>'बाघ ! तुम्हें तो उत्तम भोजन प्राप्त हुआ है, मेरे शरीर से मांस निकाल कर प्रेम पूर्वक खाओ न ! तुम इतनी देर से खड़े क्यों हो? तुम्हारे मन में मुझे खाने का विचार क्यों नहीं हो रहा है?'<br />
<br />
<strong>बाघ बोला: </strong>बकरी ! इस स्थान पर आते ही मेरे मन से द्वेष का भाव निकल गया, भूख प्यास भी मिट गयी, इसलिए पास आने पर भी अब मैं तुझे खाना नहीं चाहता। तब.....<br />
<br />
<strong>बकरी बोलीः </strong>'न जाने मैं कैसे निर्भय हो गयी हूँ, यदि तुम जानते हो तो बताओ,' इसका क्या कारण हो सकता है?<br />
<br />
<strong>बाघ ने कहाः </strong>'मैं भी नहीं जानता, वही सामने एक वृक्ष की शाखा पर एक बन्दर था, चलो सामने उस वृक्ष पर बैठे बन्दर से पूछते है,' ऐसा निश्चय करके वे दोनों वहाँ से चल दिये, उन दोनों के स्वभाव में यह विचित्र परिवर्तन देखकर मैं बहुत विस्मय में पड़ा गया, इतने में उन्होंने उस बन्दर से प्रश्न किया। उनके पूछने पर.....<br />
<br />
<strong>वानर-राज ने कहाः </strong>'श्रीमान ! सुनो, इस विषय में मैं तुम्हें प्राचीन कथा सुनाता हूँ, यह सामने वन के भीतर जो बहुत बड़ा मन्दिर है, उसकी ओर देखो इसमें ब्रह्माजी का स्थापित किया हुआ एक शिवलिंग है। पूर्वकाल में यहाँ सुकर्मा नामक एक बुद्धिमान ब्राह्मण रहते थे, जो तपस्या में संलग्न होकर इस मन्दिर में उपासना करते थे, वे वन में से फूलों का संग्रह कर लाते और नदी के जल से पूजनीय भगवान शंकर को स्नान कराकर उन्हीं से उनकी पूजा किया करते थे, इस प्रकार आराधना का कार्य करते हुए सुकर्मा यहाँ निवास करते थे, बहुत समय के बाद उनके समीप किसी अतिथि महात्मा का आगमन हुआ, भोजन के लिए फल लाकर अतिथि महात्मा को अर्पण करने के बाद.....<br />
<br />
<strong>सुकर्मा ने कहा: </strong>महात्मा ! मैं केवल तत्त्वज्ञान की इच्छा से भगवान शंकर की आराधना करता हूँ, आज इस आराधना का फल मुझे मिल गया क्योंकि इस समय आप जैसे महापुरुष ने मुझ पर अनुग्रह किया है। सुकर्मा के ये मधुर वचन सुनकर तपस्या के धनी महात्मा अतिथि को बड़ी प्रसन्नता हुई, उन्होंने एक शिलाखण्ड पर गीता का दूसरा अध्याय लिख दिया और सुकर्मा को उसके पाठ और अभ्यास के लिए आज्ञा देते हुए.....<br />
<br />
<strong>महात्मा ने कहाः </strong>'ब्रह्मन् ! इससे तुम्हारा आत्मज्ञान-सम्बन्धी मनोरथ अपने-आप सफल हो जायेगा।' यह कहकर वे बुद्धिमान तपस्वी महात्मा सुकर्मा के सामने ही उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये। सुकर्मा विस्मित होकर उनके आदेश के अनुसार निरन्तर गीता के द्वितीय अध्याय का अभ्यास करने लगे, तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् अन्तःकरण शुद्ध होकर उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई फिर वे जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँ का तपोवन शान्त हो गया। उनमें सर्दी-गर्मी और राग-द्वेष आदि की बाधाएँ दूर हो गयीं, इतना ही नहीं, उन स्थानों में भूख-प्यास का कष्ट भी जाता रहा तथा भय का सर्वथा अभाव हो गया। यह सब द्वितीय अध्याय का जप करने वाले सुकर्मा ब्राह्मण की तपस्या का ही प्रभाव को समझो।<br />
<br />
<strong>मित्रवान कहता हैः </strong>वानर-राज के इस प्रकार बताने पर मैं प्रसन्नता पूर्वक बकरी और बाघ के साथ उस मन्दिर की ओर गया। वहाँ जाकर शिलाखण्ड पर लिखे हुए गीता के द्वितीय अध्याय को मैंने देखा और पढ़ा। उसी का अध्यन करने से मैंने तपस्या का पार पा लिया है, अतः भद्रपुरुष ! तुम भी सदा द्वितीय अध्याय का ही अध्यन किया करो, ऐसा करने पर मुक्ति तुमसे दूर नहीं रहेगी।<br />
<br />
<strong>श्रीभगवान कहते हैं: </strong>प्रिये ! मित्रवान के इस प्रकार आदेश देने पर देव शर्मा ने उसका पूजन किया और उसे प्रणाम करके पुरन्दरपुर की राह ली। वहाँ किसी देवालय में पूर्वोक्त आत्म-ज्ञानी महात्मा को पाकर उन्होंने यह सारा वृत्तान्त निवेदन किया और सबसे पहले उन्हीं से द्वितीय अध्याय को पढ़ा, उनसे उपदेश पाकर शुद्ध अन्तःकरण वाले देव शर्मा प्रतिदिन बड़ी श्रद्धा के साथ द्वितीय अध्याय का अध्यन करके ब्रह्म-ज्ञान में लीन होकर परम पद प्राप्त हुआ।.....<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-49915602235631807872010-08-20T20:45:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.134+05:30अध्याय दो - गीतासार-योग<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1uuijsXA73RY9l9EPeGRESnPZOC7QYwrM1xJKeone4IZ3ihWXm0LyANvqDwEHTx5C1IGqWhWnsCEuFpqIFYJ05H2MWwSB3T5dYKjdTe2zuuH8kS_GZ8GYDZgQbw93g1ZA4XCza55LUhax/s1600/Gita+(2).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1uuijsXA73RY9l9EPeGRESnPZOC7QYwrM1xJKeone4IZ3ihWXm0LyANvqDwEHTx5C1IGqWhWnsCEuFpqIFYJ05H2MWwSB3T5dYKjdTe2zuuH8kS_GZ8GYDZgQbw93g1ZA4XCza55LUhax/s400/Gita+(2).jpg" width="400" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (अर्जुन के शोक का कारण) </b></span><b><br />
</b><br />
संजय उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।<br />
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ (१) </span> </div><br />
भावार्थ : संजय ने कहा - इस प्रकार करुणा से अभिभूत, आँसुओं से भरे हुए व्याकुल नेत्रों वाले, शोकग्रस्त अर्जुन को देखकर मधुसूदन श्रीकृष्ण ने यह शब्द कहे। (१)<br />
<br />
<div align="center">श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।<br />
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन। (२)</span> </div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! इस विपरीत स्थिति पर तेरे मन में यह अज्ञान कैसे उत्पन्न हुआ? न तो इसका जीवन के मूल्यों को जानने वाले मनुष्यों द्वारा आचरण किया गया है, और न ही इससे स्वर्ग की और न ही यश की प्राप्ति होती है। (२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।<br />
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ (३)</span> </div><br />
भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! तू नपुंसकता को प्राप्त मत हो, यह तुझे शोभा नहीं देता है, हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो। (३)<br />
<br />
<div align="center">अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।<br />
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ (४)</span> </div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे मधुसूदन! हे शत्रुहन्ता! मैं युद्धभूमि में किस प्रकार भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसे पूज्यनीय व्यक्तियों पर बाण कैसे चलाऊँगा? (४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">गुरूनहत्वा हि महानुभावा-ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।<br />
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥ (५)</span> </div><br />
भावार्थ : ऎसे महापुरुषों को जो कि मेरे गुरु हैं, इन्हे मार कर जीने की अपेक्षा मैं इस संसार में भिक्षा माँग कर खाना श्रेयस्कर समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मार कर भी तो इस संसार में खून से सने हुए सुख रूप भोग ही तो भोगने को मिलेंगे। (५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।<br />
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ (६)</span> </div><br />
भावार्थ : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना श्रेष्ठ है या युद्ध न करना, और यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या वे ही जीतेंगे, धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करके हम जीना भी नहीं चाहते, फ़िर भी वे हमारे सामने युद्ध-भूमि में खड़े हैं। (६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।<br />
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ (७)</span> </div><br />
भावार्थ : कृपण और दुर्बल स्वभाव के कारण अपने कर्तव्य के विषय में मोहित हुआ, मैं आपसे पूछता हूँ कि वह साधन जो मेरे लिये श्रेयस्कर हो, उसे निश्चित करके कहिए, अब मैं आपका शिष्य हूँ, और आपके शरणागत हूँ, कृपया मुझे उपदेश दीजिये। (७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।<br />
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ (८)</span> </div><br />
भावार्थ : मुझे ऎसा कोई साधन नही दिखता जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके, स्वर्ग में धनधान्य-सम्पन्न देवताओं के सर्वोच्च इन्द्र-पद और पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य को प्राप्त करके भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ। (८)<br />
<br />
<div align="center">संजय उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।<br />
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ (९)</span> </div><br />
भावार्थ : संजय ने कहा - हे राजन्! निद्रा को जीतने वाला अर्जुन ने इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण से कहा "हे गोविंद मैं युद्ध नहीं करूँगा" और चुप हो गया। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।<br />
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥ (१०)</span> </div><br />
भावार्थ : हे भरतवंशी! इस समय दोनों सेनाओं के बीच शोक-ग्रस्त अर्जुन से इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण ने हँसते हुए से यह शब्द कहे। (१०)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (सांख्ययोग का विषय) </b></span><b><br />
</b><br />
श्री भगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।<br />
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ (११)</span> </div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! तू उनके लिये शोक करता है जो शोक करने योग्य नहीं है और पण्डितों की तरह बातें करता है। जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित प्राणी के लिये और न ही मृत प्राणी के लिये शोक करते। (११)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।<br />
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ (१२)</span> </div><br />
भावार्थ : ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं किसी भी समय में नहीं था, या तू नहीं था अथवा ये समस्त राजा नहीं थे और न ऐसा ही होगा कि भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे। (१२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।<br />
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ (१३)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल अवस्था से युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था को निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चला जाता है, ऎसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होते हैं। (१३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।<br />
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ (१४)</span> </div><br />
भावार्थ : हे कुंतीपुत्र! सुख-दुःख को देने वाले विषयों के क्षणिक संयोग तो केवल इन्द्रिय-बोध से उत्पन्न होने वाले सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के समान आने-जाने वाले हैं, इसलिए हे भरतवंशी! तू अविचल भाव से उनको सहन करने का प्रयत्न कर। (१४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।<br />
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ (१५)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पुरुष श्रेष्ठ! जो मनुष्य दुःख तथा सुख में कभी विचलित नहीं होता है, दोनों परिस्थितियों में सम-भाव रखता है, ऎसा धीर-पुरुष निश्चित रुप से मुक्ति के योग्य होता है। (१५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।<br />
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥ (१६)</span> </div><br />
भावार्थ : तत्वदर्शीयों के द्वारा निष्कर्ष निकाल कर देखा गया है कि असत् वस्तु <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(शरीर) </span></b>का कोई अस्तित्व नहीं होता है और सत् वस्तु <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(आत्मा)</span></b> में कोई परिवर्तन नही होता है। (१६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।<br />
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ (१७)</span> </div><br />
भावार्थ : जो सभी शरीरों में व्याप्त है उस आत्मा को ही तू अविनाशी समझ, इसको नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है। (१७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।<br />
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥ (१८)</span> </div><br />
भावार्थ : इस अविनाशी, अमाप, नित्य-स्वरूप आत्मा के ये सब शरीर नष्ट होने वाले हैं, अत: हे भरतवंशी! तू युद्ध कर। (१८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।<br />
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ (१९)</span> </div><br />
भावार्थ : जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी है, क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है। (१९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।<br />
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ (२०)</span> </div><br />
भावार्थ : यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्म लेता है और न मरता है और न ही जन्म लेगा, यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जा सकता है। (२०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।<br />
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ (२१)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! जो मनुष्य इस आत्मा को अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह मनुष्य किसी को कैसे मार सकता है या किसी के द्वारा कैसे मारा जा सकता है? (२१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।<br />
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ (२२)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नये शरीरों को धारण करता है। (२२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।<br />
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ (२३)</span> </div><br />
भावार्थ : यह आत्मा न तो शस्त्र द्वारा काटा सकता है, न ही आग के द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया जा सकता है और न ही वायु द्वारा सुखाया जा सकता है। (२३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।<br />
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ (२४)</span> </div><br />
भावार्थ : यह आत्मा न तो तोडा़ जा सकता है, न ही जलाया जा सकता है, न इसे घुलाया जा सकता है और न ही सुखाया जा सकता है, यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर और सदैव एक सा रहने वाला है। (२४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।<br />
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥ (२५)</span> </div><br />
भावार्थ : यह आत्मा अदृश्य, अकल्पनीय, और अपरिवर्तनीय कहा जाता है, इस प्रकार आत्मा को अच्छी तरह जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है। (२५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।<br />
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥ (२६)</span> </div><br />
भावार्थ : हे महाबाहु! यदि तू इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाला तथा सदा मरने वाला मानता है, तो भी तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है। (२६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।<br />
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (२७)</span> </div><br />
भावार्थ : जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म निश्चित है, अत: इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है। (२७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।<br />
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ (२८)</span> </div><br />
भावार्थ : हे भरतवंशी! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट रहते है और मरने के बाद भी अदृश्य हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही इन्हे देखा जा सकता हैं, अत: शोक करने की कोई आवश्यकता नही है? (२८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।<br />
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ (२९)</span> </div><br />
भावार्थ : कोई इस आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है, कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है और कोई-कोई तो इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाता है। (२९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।<br />
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (३०)</span> </div><br />
भावार्थ : हे भरतवंशी! इस आत्मा का शरीर में कभी वध नहीं किया जा सकता है, अत: तुझे किसी भी प्राणी के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है। (३०)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (धर्म के अनुसार युद्ध का निरूपण) </b></span><b><br />
</b><br />
<br />
<span style="color: #3333ff;">स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।<br />
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ (३१)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! क्षत्रिय होने के कारण अपने धर्म का विचार करके भी तू संकोच करने योग्य नहीं है, क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्म के लिये युद्ध करने के अलावा अन्य कोई श्रेष्ठ कार्य नहीं है। (३१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम् ।<br />
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥ (३२)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पार्थ! वे क्षत्रिय भाग्यवान है जिन्हे ऎसॆ युद्ध के अवसर अपने-आप प्राप्त होते है जिससे उनके लिये स्वर्ग के द्वार खुल जाते है। (३२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।<br />
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ (३३)</span> </div><br />
भावार्थ : किन्तु यदि तू इस धर्म के लिये युद्ध नहीं करेगा तो अपनी कीर्ति को खोकर कर्तव्य-कर्म की उपेक्षा करने पर पाप को प्राप्त होगा। (३३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।<br />
सम्भावितस्य चाकीर्ति र्मरणादतिरिच्यते ॥ (३४)</span> </div><br />
भावार्थ : लोग सदैव तेरी बहुत समय तक रहने वाली अपकीर्ति का भी वर्णन करेंगे और सम्मानित मनुष्य के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है। (३४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।<br />
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥ (३५)</span> </div><br />
भावार्थ : जिन-जिन योद्धाओं की दृष्टि में तू पहले सम्मानित हुआ है, वे महारथी लोग तुझे डर के कारण युद्ध-भूमि से हटा हुआ समझ कर तुच्छ मानेंगे। (३५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः ।<br />
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥ (३६)</span> </div><br />
भावार्थ : तेरे शत्रु तेरी सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से कटु वचन भी कहेंगे, तेरे लिये इससे अधिक दु:खदायी और क्या हो सकता है? (३६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।<br />
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ (३७)</span> </div><br />
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! यदि तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त करेगा और यदि तू युद्ध जीत गया तो पृथ्वी का साम्राज्य भोगेगा, अत: तू दृढ-संकल्प करके खड़ा हो जा और युद्ध कर। (३७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।<br />
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ (३८)</span> </div><br />
भावार्थ : सुख या दुख, हानि या लाभ और विजय या पराजय का विचार त्याग कर युद्ध करने के लिये ही युद्ध कर, ऎसा करने से तू पाप को प्राप्त नही होगा। (३८)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (कर्मयोग का विषय) </b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।<br />
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ (३९)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान-योग <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सांख्य-योग) </span></b>के विषय में कही गई और अब तू इसको निष्काम कर्म-योग के विषय में सुन, जिससे तू इस बुद्धि से कर्म करेगा तो तू कर्मों के बंधन से अपने को मुक्त कर सकेगा। (३९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।<br />
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ (४०)</span> </div><br />
भावार्थ : इस प्रकार कर्म करने से न तो कोई हानि होती है और न ही फल-रूप दोष लगता है, अपितु इस निष्काम कर्म-योग की थोडी़-सी भी प्रगति जन्म-मृत्यु के महान भय से रक्षा करती है। (४०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।<br />
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ (४१)</span> </div><br />
भावार्थ : हे कुरुनन्दन! इस निष्काम कर्म-योग में दृड़-प्रतिज्ञ बुद्धि एक ही होती है, किन्तु जो दृड़-प्रतिज्ञ नही है उनकी बुद्धि अनन्त शाखाओं में विभक्त रहती हैं। (४१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।<br />
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ (४२)<br />
<br />
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।<br />
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ (४३)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! अल्प-ज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते है, जो स्वर्ग की प्राप्ति, उत्तम जन्म तथा ऎश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिये अनेक सकाम कर्म-फ़ल की विविध क्रियाओं का वर्णन करते है, इन्द्रिय-तृप्ति और ऎश्वर्यमय जीवन की कामना के कारण वे कहते है कि इससे वढ़कर और कुछ नही है। (४२-४३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।<br />
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ (४४)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृड़-संकल्पित बुद्धि नहीं होती है। (४४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।<br />
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ (४५)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! वेदों में मुख्य रुप से प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है इसलिए तू इन तीनों गुणों से ऊपर उठ, हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से रहित तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त आत्म-परायण बन। (४५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।<br />
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ (४६)</span> </div><br />
भावार्थ : सभी तरफ़ से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय के प्रति मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों से उतना ही प्रयोजन रह जाता है। (४६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।<br />
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ (४७)</span> </div><br />
भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में अधिकार नहीं है, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और कर्म न करने में तेरी आसक्ति भी न हो। (४७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।<br />
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ (४८)</span> </div><br />
भावार्थ : हे धनंजय! तू सफ़लता तथा विफ़लता में आसक्ति को त्याग कर सम-भाव में स्थित हुआ अपना कर्तव्य समझकर कर्म कर, ऎसी समता ही समत्व बुद्धि-योग कहलाती है। (४८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।<br />
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ (४९)</span> </div><br />
भावार्थ : हे धनंजय! इस समत्व बुद्धि-योग के द्वारा समस्त निन्दनीय कर्म से दूर रहकर उसी भाव से ऎसी चेतना (परमात्मा) की शरण-ग्रहण कर, सकाम कर्म के फलों को चाहने वाले मनुष्य अत्यन्त कंजूस होते है। (४९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।<br />
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ (५०)</span> </div><br />
भावार्थ : समत्व बुद्धि-योग के द्वारा मनुष्य इसी जीवन में अपने-आप को पुण्य और पाप कर्मों से मुक्त कर लेता है। अत: तू इसी योग में लग जा, क्योंकि इसी योग के द्वारा ही सभी कार्य कुशलता-पूर्वक पूर्ण होते है। (५०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।<br />
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ (५१)</span> </div><br />
भावार्थ : इस समत्व बुद्धि-योग से ऋषि-मुनि तथा भक्त सकाम-कर्मों से उत्पन्न होने वाले फलों को त्याग कर जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परम-पद को प्राप्त हो जाते हैं। (५१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।<br />
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ (५२)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस समय में तेरी बुद्धि मोह रूपी दलदल को भली-भाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने योग्य सभी भोगों से विरक्ति को प्राप्त हो जाएगा। (५२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।<br />
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ (५३)</span> </div><br />
भावार्थ : वेदिक ज्ञान के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब एकनिष्ठ और स्थिर हो जाएगी, तब तू आत्म-साक्षात्कार करके उस दिव्य चेतना रुप परमात्मा को प्राप्त हो जाएगा। (५३)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (स्थिर-प्रज्ञ पुरुष के लक्षण) </b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।<br />
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ (५४)</span> </div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे केशव! अध्यात्म में लीन स्थिर-बुद्धि वाले मनुष्य का क्या लक्षण है? वह स्थिर-बुद्धि मनुष्य कैसे बोलता है, किस तरह बैठता है और किस प्रकार चलता है? (५४)<br />
<br />
<div align="center">श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।<br />
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ (५५)</span> </div><br />
भावार्थ : श्री भगवान् ने कहा - हे पार्थ! जब मनुष्य मनोरथ से उत्पन्न होने वाली इन्द्रिय-तृप्ति की सभी प्रकार की कामनाओं परित्याग कर देता है जब विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में ही सन्तोष प्राप्त करता है, तब वह मनुष्य विशुद्ध चेतना में स्थित (स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है। (५५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।<br />
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ (५६)</span> </div><br />
भावार्थ : दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसका मन विचलित नहीं होता है, सुखों की प्राप्ति की इच्छा नही रखता है, जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त हैं, ऐसा स्थिर मन वाला मुनि कहा जाता है। (५६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।<br />
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (५७)</span> </div><br />
भावार्थ : इस संसार में जो मनुष्य न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर द्वेष करता है, ऎसी बुद्धि वाला पूर्ण ज्ञान मे स्थिर होता है। (५७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।<br />
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (५८)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस प्रकार कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, उसी प्रकार जब मनुष्य इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों से सब प्रकार से खींच लेता है, तब वह पूर्ण चेतना में स्थिर होता है। (५८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।<br />
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥ (५९)</span> </div><br />
भावार्थ : इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले मनुष्य के विषय तो मिट जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति बनी रहती है, ऎसे स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य की आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके मिट जाती है। (५९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।<br />
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ (६०)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि जो मनुष्य इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है, उस विवेकी मनुष्य के मन को भी बल-पूर्वक हर लेतीं है। (६०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।<br />
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (६१)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है, वही मनुष्य स्थिर-बुद्धि वाला कहलाता है। (६१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।<br />
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ (६२)</span> </div><br />
भावार्थ : इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, ऎसी आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। (६२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।<br />
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ (६३)</span> </div><br />
भावार्थ : क्रोध से अत्यन्त पूर्ण मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति में भ्रम उत्पन्न होता है, स्मरण-शक्ति में भ्रम हो जाने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का अधो-पतन हो जाता है। (६३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।<br />
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ (६४)</span> </div><br />
भावार्थ : किन्तु सभी राग-द्वेष से मुक्त रहने वाला मनुष्य अपनी इन्द्रियों के संयम द्वारा मन को वश करके भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है। (६४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।<br />
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ (६५)</span> </div><br />
भावार्थ : इस प्रकार भगवान की कृपा प्राप्त होने से सम्पूर्ण दुःखों का अन्त हो जाता है तब उस प्रसन्न-चित्त मन वाले मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही एक परमात्मा में पूर्ण रूप से स्थिर हो जाती है। (६५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।<br />
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥ (६६)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं होती है उस मनुष्य की न तो बुद्धि स्थिर होती है, न मन स्थिर होता है और न ही शान्ति प्राप्त होती है उस शान्ति-रहित मनुष्य को सुख किस प्रकार संभव है? (६६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।<br />
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ (६७)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण करती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है। (६७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।<br />
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (६८)</span> </div><br />
भावार्थ : हे महाबाहु! जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सभी प्रकार से विरक्त होकर उसके वश में रहती हैं, उसी मनुष्य की बुद्धि स्थिर रहती है। (६८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।<br />
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ (६९)</span> </div><br />
भावार्थ : जो सभी प्राणीयों के लिये रात्रि के समान है, वह बुद्धि-योग में स्थित मनुष्य के लिये जागने का समय होता है और जो समस्त प्राणीयों के लिये जागने का समय होता है, वह स्थिर-प्रज्ञ मुनि के लिए वह रात्रि के समान होता है। (६९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।<br />
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ (७०)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस प्रकार अनेकों नदियाँ सभी ओर से परिपूर्ण, दृड़-प्रतिष्ठा वाले समुद्र में समुद्र को विचलित किए बिना ही समा जाती हैं, उसी प्रकार सभी इच्छायें स्थित-प्रज्ञ मनुष्य में बिना विकार उत्पन्न किए ही समा जाती हैं, वही मनुष्य परम-शान्ति को प्राप्त होता है, न कि इन्द्रिय सुख चाहने वाला। (७०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।<br />
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ (७१)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही परम-शांति को प्राप्त कर सकता है। (७१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।<br />
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ (७२)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थिति हो जाता है तब भी वह भगवद्प्राप्ति करता है। (७२)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गीतासार-योगो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥</span><br />
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवदगीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में गीतासार-योग नाम का दूसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥<br />
<br />
<span style="color: #006600;"><b> ॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥ </b></span> </div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-9640608338373876062010-08-10T20:15:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.166+05:30अध्याय तीन का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong> श्री भगवान कहते हैं:</strong> प्रिये ! जनस्थान में एक जड़ नामक ब्राह्मण था, जो कौशिक वंश में उत्पन्न हुआ था, उसने अपना जातीय धर्म छोड़कर व्यापारिक वृत्ति में मन लगाया उसे परायी स्त्रियों के साथ व्यभिचार करने का व्यसन पड़ गया था, वह सदा जुआ खेलता, शराब पीता और शिकार खेलकर जीवों की हिंसा किया करता था। <br />
<br />
इसी प्रकार उसका समय बीतता था, धन नष्ट हो जाने पर वह व्यापार के लिए बहुत दूर उत्तर दिशा में चला गया, वहाँ से धन कमाकर घर की ओर लौटा, बहुत दूर तक का रास्ता उसने तय कर लिया था, एक दिन सूर्यास्त हो जाने पर जब दसों दिशाओं में अन्धकार फैल गया, तब एक वृक्ष के नीचे उसे लुटेरों ने धर दबाया और शीघ्र ही उसके प्राण ले लिए, उसके धर्म का लोप हो गया था, इसलिए वह बड़ा भयानक प्रेत हुआ।<br />
<br />
उसका पुत्र बड़ा ही धर्मात्मा और वेदों का विद्वान था, उसने अब तक पिता के लौट आने की राह देखी, जब वे नहीं आये, तब उनका पता लगाने के लिए वह स्वयं भी घर छोड़कर चल दिया, वह प्रतिदिन खोज करता, मगर राहगीरों से पूछने पर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं मिलता था, तदनन्तर एक दिन एक व्यक्ति से उसकी भेंट हुई, जो उसके पिता का सहायक था, उससे सारा हाल जानकर उसने पिता की मृत्यु पर बहुत शोक किया, वह बड़ा बुद्धिमान था। <br />
<br />
बहुत कुछ सोच-विचार कर पिता का पारलौकिक कर्म करने की इच्छा से आवश्यक सामग्री साथ ले उसने काशी जाने का विचार किया, मार्ग में सात-आठ मुकाम डाल कर वह नौवें दिन उसी वृक्ष के नीचे आ पहुँचा जहाँ उसके पिता मारे गये थे, उस स्थान पर उसने संध्या-वन्दन की और गीता के तीसरे अध्याय का पाठ किया। <br />
<br />
उसी समय आकाश में बड़ी भयानक आवाज हुई, उसने पिता को भयंकर आकार में देखा फिर तुरन्त ही अपने सामने आकाश में उसे एक सुन्दर विमान दिखाई दिया, जो तेज से व्याप्त था, उसमें अनेकों क्षुद्र घंटिकाएँ लगी थीं, उसके तेज से समस्त दिशाएँ आलोकित हो रही थीं, यह दृश्य देखकर उसके चित्त की व्यग्रता दूर हो गयी, उसने विमान पर अपने पिता को दिव्य रूप धारण किये विराजमान देखा, उनके शरीर पर पीताम्बर शोभा पा रहा था और मुनिजन उनकी स्तुति कर रहे थे, उन्हें देखते ही पुत्र ने प्रणाम किया, तब पिता ने भी उसे आशीर्वाद दिया।<br />
<br />
तत्पश्चात् उसने पिता से यह सारा वृत्तान्त पूछा, उसके उत्तर में पिता ने सब बातें बताकर इस प्रकार कहना आरम्भ कियाः 'बेटा ! दैववश मेरे निकट गीता के तृतीय अध्याय का पाठ करके तुमने इस शरीर के द्वारा किए हुए दुषकर्म-बन्धन से मुझे छुड़ा दिया, अतः अब घर लौट जाओ क्योंकि जिसके लिए तुम काशी जा रहे थे, वह प्रयोजन इस समय तृतीय अध्याय के पाठ से ही सिद्ध हो गया है।' <br />
<br />
पिता के इस प्रकार कहने पर पुत्र ने पूछाः 'तात ! मेरे हित का उपदेश दीजिए तथा और कोई कार्य जो मेरे लिए करने योग्य हो बतलाइये,' तब पिता ने कहाः 'अनघ ! तुम्हे यही कार्य फिर करना है, मैंने जो कर्म किये हैं, वही मेरे भाई ने भी किये थे, इससे वे घोर नरक में पड़े हैं, उनका भी तुम्हे उद्धार करना चाहिए तथा मेरे कुल के और भी जितने लोग नरक में पड़े हैं, उन सबका भी तुम्हारे द्वारा उद्धार हो जाना चाहिए, यही मेरा मनोरथ है, बेटा ! जिस साधन के द्वारा तुमने मुझे संकट से छुड़ाया है, उसी का अनुष्ठान औरों के लिए भी करना उचित है, उसका अनुष्ठान करके उससे होने वाला पुण्य उन नारकीय जीवों को संकल्प करके दे दो, इससे वे समस्त पूर्वज मेरी ही तरह यातना से मुक्त हो अल्प समय में ही श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त हो जायेंगे।'<br />
<br />
पिता का यह संदेश सुनकर पुत्र ने कहाः 'तात ! यदि ऐसी बात है और आपकी भी ऐसी रूचि है तो मैं समस्त नारकी जीवों का नरक से उद्धार कर दूँगा।' यह सुनकर उसके पिता बोलेः 'बेटा एवमस्तु ! तुम्हारा कल्याण हो, मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो गया,' इस प्रकार पुत्र को आश्वासन देकर उसके पिता भगवान विष्णु के परम धाम को चले गये, तत्पश्चात् वह भी लौटकर जनस्थान में आया और परम सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिर में उनके समक्ष बैठकर पिता के आदेशानुसार गीता के तीसरे अध्याय का पाठ करने लगा, उसने नारकी जीवों का उद्धार करने की इच्छा से गीता के पाठ का सारा पुण्य संकल्प करके दे दिया।<br />
<br />
इसी बीच में भगवान विष्णु के दूत यातना भोगने वाले नरक की जीवों को छुड़ाने के लिए यमराज के पास गये, यमराज ने नाना प्रकार के सत्कारों से उनका पूजन किया और कुशलता पूछी, वे बोलेः 'धर्मराज ! हम लोगों के लिए सब ओर आनन्द ही आनन्द है,' इस प्रकार सत्कार करके पितृ-लोक के सम्राट परम बुद्धिमान यम ने विष्णु दूतों से यमलोक में आने का कारण पूछा।<br />
<br />
<strong> तब विष्णुदूतों ने कहाः </strong> यमराज ! शेषशय्या पर शयन करने वाले भगवान विष्णु ने हम लोगों को आपके पास कुछ संदेश देने के लिए भेजा है, भगवान हम लोगों के मुख से आपकी कुशल पूछते हैं और यह आज्ञा देते हैं कि 'आप नरक में पड़े हुए समस्त प्राणियों को छोड़ दें।'<br />
<br />
अमित तेजस्वी भगवान विष्णु का यह आदेश सुनकर यम ने मस्तक झुकाकर उसे स्वीकार किया और मन ही मन कुछ सोचा, तत्पश्चात् नारकीय जीवों को नरक से मुक्त देखकर उनके साथ ही वे भगवान विष्णु के वास स्थान को चले, यमराज श्रेष्ठ विमान के द्वारा जहाँ क्षीरसागर हैं, वहाँ जा पहुँचे, उसके भीतर कोटि-कोटि सूर्यों के समान कान्तिमान नील कमल दल के समान श्यामसुन्दर लोकनाथ जगदगुरु श्री हरि का उन्होंने दर्शन किया, भगवान का तेज उनकी शय्या बने हुए शेषनाग के फणों की मणियों के प्रकाश से दुगना हो रहा था, वे आनन्दयुक्त दिखाई दे रहे थे, उनका हृदय प्रसन्नता से परिपूर्ण था।<br />
<br />
भगवती लक्ष्मी अपनी सरल चितवन से प्रेम-पूर्वक उन्हें बार-बार निहार रहीं थीं, चारों ओर योगीजन भगवान की सेवा में खड़े थे, ध्यानस्थ होने के कारण उन योगियों की आँखों के तारे निश्चल प्रतीत होते थे, देवराज इन्द्र अपने विरोधियों को परास्त करने के उद्देश्य से भगवान की स्तुति कर रहे थे, ब्रह्माजी के मुख से निकले हुए वेदान्त-वाक्य मूर्तिमान होकर भगवान के गुणों का गान कर रहे थे, भगवान पूर्णतः संतुष्ट होने के साथ ही समस्त योनियों की ओर से उदासीन प्रतीत होते थे, जीवों में से जिन्होंने योग-साधन के द्वारा अधिक पुण्य संचय किया था। <br />
<br />
उन सबको एक ही साथ वे कृपादृष्टि से निहार रहे थे, भगवान अपने स्वरूप भूत अखिल चराचर जगत को आनन्दपूर्ण दृष्टि से आनन्दित कर रहे थे, शेषनाग की प्रभा से उद्भासित और सर्वत्र व्यापक दिव्य विग्रह धारण किये नील कमल के सदृश श्याम वर्णवाले श्रीहरि ऐसे जान पड़ते थे, मानो चाँदनी से घिरा हुआ आकाश सुशोभित हो रहा हो, इस प्रकार भगवान की झाँकी के दर्शन करके यमराज अपनी विशाल बुद्धि के द्वारा उनकी स्तुति करने लगे।<br />
<br />
<strong> यमराज बोलेः </strong> सम्पूर्ण जगत का निर्माण करने वाले परमेश्वर ! आपका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है, आपके मुख से ही वेदों का प्रादुर्भाव हुआ है, आप ही विश्वस्वरूप और इसके विधायक ब्रह्मा हैं, आपको नमस्कार है, अपने बल और वेग के कारण जो अत्यन्त दुर्धर्ष प्रतीत होते हैं, ऐसे मदान्धों का अभिमान चूर्ण करने वाले भगवान विष्णु को नमस्कार है, पालन के समय सत्त्वमय शरीर धारण करने वाले, विश्व के आधारभूत, सर्वव्यापी श्रीहरि को नमस्कार है, समस्त देहधारियों की पातक-राशि को दूर करने वाले परमात्मा को प्रणाम है। <br />
<br />
जिनके ललाटवर्ती नेत्र के तनिक-सा खुलने पर भी आग की लपटें निकलने लगती हैं, उन रूद्र रूपधारी आप परमेश्वर को नमस्कार है, आप सम्पूर्ण विश्व के गुरु, आत्मा और महेश्वर हैं, अतः समस्त वैश्नवजनों को संकट से मुक्त करके उन पर अनुग्रह करते हैं, आप माया से विस्तार को प्राप्त हुए अखिल विश्व में व्याप्त होकर भी कभी माया अथवा उससे उत्पन्न होने वाले गुणों से मोहित नहीं होते, माया तथा मायाजनित गुणों के बीच में स्थित होने पर भी आप पर उनमें से किसी का प्रभाव नहीं पड़ता, आपकी महिमा का अन्त नहीं है, क्योंकि आप असीम हैं फिर आप वाणी के विषय कैसे हो सकते हैं? अतः मेरा मौन रहना ही उचित है।<br />
<br />
इस प्रकार स्तुति करके यमराज ने हाथ जोड़कर कहाः 'जगदगुरु ! आपके आदेश से इन जीवों को गुणरहित होने पर भी मैंने छोड़ दिया है, अब मेरे योग्य और जो कार्य हो, उसे बताइये,' उनके यों कहने पर भगवान मधुसूदन मेघ के समान गम्भीर वाणी द्वारा मानो अमृतरस से सींचते हुए बोलेः 'धर्मराज ! तुम सबके प्रति समान भाव रखते हुए लोकों का पाप से उद्धार कर रहे हो, तुम पर देहधारियों का भार रखकर मैं निश्चिन्त हूँ, अतः तुम अपना काम करो और अपने लोक को लौट जाओ।' यह कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये, यमराज भी अपनी पुरी को लौट आये, तब वह ब्राह्मण अपनी जाति के और समस्त नारकी जीवों का नरक से उद्धार करके स्वयं भी श्रेष्ठ विमान द्वारा श्री विष्णुधाम को चला गया।<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-65766440996566604362010-08-01T20:30:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.148+05:30अध्याय तीन - कर्मयोग<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIUfjU_lEdbMhmHSMfpgqrLaRHj_46cYm-N4pC47SGrtpt2SVc73-bf_AfXJtv76Cump5K9kvxBbSYNTDuLTP8H4OwdtBDO7tqxxjeRUeDZo_1luAbIOETITPraNTnx7EYjHaxPZR8brT6/s1600/Gita+(3).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="484" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIUfjU_lEdbMhmHSMfpgqrLaRHj_46cYm-N4pC47SGrtpt2SVc73-bf_AfXJtv76Cump5K9kvxBbSYNTDuLTP8H4OwdtBDO7tqxxjeRUeDZo_1luAbIOETITPraNTnx7EYjHaxPZR8brT6/s640/Gita+(3).jpg" width="640" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (कर्म-योग और ज्ञान-योग का भेद)</b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।<br />
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ (१) </span></div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे जनार्दन! हे केशव! यदि आप निष्काम-कर्म मार्ग की अपेक्षा ज्ञान-मार्ग को श्रेष्ठ समझते है तो फिर मुझे भयंकर कर्म <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(युद्ध)</span></b> में क्यों लगाना चाहते हैं? (१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।<br />
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥ (२)</span> </div><br />
भावार्थ : आप अनेक अर्थ वाले शब्दों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं, अत: इनमें से मेरे लिये जो एकमात्र श्रेयस्कर हो उसे कृपा करके निश्चय-पूर्वक मुझे बतायें, जिससे में उस श्रेय को प्राप्त कर सकूँ। (२)<br />
<br />
<div align="center">श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।<br />
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥ (३)</span> </div><br />
भावार्थ : श्रीभगवान ने कहा - हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में आत्म-साक्षात्कार की दो प्रकार की विधियाँ पहले भी मेरे द्वारा कही गयी हैं, ज्ञानीयों के लिये ज्ञान-मार्ग <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सांख्य-योग)</span></b> और योगियों के लिये निष्काम कर्म-मार्ग <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(भक्ति-योग)</span></b> नियत है। (३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।<br />
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ (४)</span> </div><br />
भावार्थ : मनुष्य न तो बिना कर्म किये कर्म-बन्धनों से मुक्त हो सकता है और न ही कर्मों के त्याग <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सन्यास)</span></b> मात्र से सफ़लता <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सिद्धि)</span></b> को प्राप्त हो सकता है। (४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।<br />
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ (५)</span> </div><br />
भावार्थ : कोई भी मनुष्य किसी भी समय में क्षण-मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करता है। (५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।<br />
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ (६)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य कर्म-इन्द्रियों को वश में तो करता है किन्तु मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, ऎसा मूर्ख जीव मिथ्याचारी कहलाता है। (६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।<br />
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ (७)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! जो मनुष्य मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्म-योग <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(निष्काम कर्म-योग) </span></b>का आचरण करता है, वही सभी मनुष्यों में अति-उत्तम मनुष्य है। (७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।<br />
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥ (८)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! तू अपना नियत कर्तव्य-कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, कर्म न करने से तो तेरी यह जीवन-यात्रा भी सफ़ल नही हो सकती है। (८)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (यज्ञ की उत्पत्ति का निरूपण) </b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।<br />
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥ (९)</span> </div><br />
भावार्थ : यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है इस यज्ञ की प्रक्रिया के अतिरिक्त जो भी किया जाता है उससे जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन उत्पन्न होता है, अत: हे कुन्तीपुत्र! उस यज्ञ की पूर्ति के लिये संग-दोष से मुक्त रहकर भली-भाँति कर्म का आचरण कर। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।<br />
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ (१०)</span> </div><br />
भावार्थ : सृष्टि के प्रारम्भ में प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ सहित देवताओं और मनुष्यों को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा सुख-समृध्दि को प्राप्त करो और यह यज्ञ तुम लोगों की इष्ट<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(परमात्मा) </span></b>संबन्धित कामना की पूर्ति करेगा। (१०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।<br />
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ (११)</span> </div><br />
भावार्थ : इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता तुम लोगों की उन्नति करेंगे, इस तरह एक-दूसरे की उन्नति करते हुए तुम लोग परम-कल्याण <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(परमात्मा)</span></b> को प्राप्त हो जाओगे। (११)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।<br />
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥ (१२)</span> </div><br />
भावार्थ : यज्ञ द्वारा उन्नति को प्राप्त देवता तुम लोगों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, किन्तु जो मनुष्य देवताओं द्वारा दिए हुए सुख-भोगों को उनको दिये बिना ही स्वयं भोगता है, उसे निश्चित-रूप से चोर समझना चाहिये। (१२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।<br />
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ (१३)</span> </div><br />
भावार्थ : यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले भक्त सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु अन्य लोग जो अपने इन्द्रिय-सुख के लिए ही भोजन पकाते हैं, वे तो पाप ही खाते हैं। (१३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।<br />
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ (१४)</span> </div><br />
भावार्थ : सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति नियत-कर्म <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(वेद की आज्ञानुसार कर्म) </span></b>के करने से होती है। (१४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।<br />
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥ (१५)</span> </div><br />
भावार्थ : नियत कर्मों का विधान वेद में निहित है और वेद को शब्द-रूप से अविनाशी परमात्मा से साक्षात् उत्पन्न समझना चाहिये, इसलिये सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्म-रूप में यज्ञ में सदा स्थित रहता है। (१५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।<br />
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ (१६)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! जो मनुष्य जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(नियत-कर्म) </span></b>का अनुसरण नहीं करता हैं, वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऎसा मनुष्य इन्द्रियों की तुष्टि के लिये व्यर्थ ही जीता है। (१६)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (नियत-कर्म का निरुपण) </b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।<br />
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ (१७)</span> </div><br />
भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही आनन्द प्राप्त कर लेता है तथा वह अपनी आत्मा मे ही पूर्ण-सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कोई नियत-कर्म <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(कर्तव्य)</span></b> शेष नहीं रहता है। (१७)<br />
<br />
<div align="center">संजय उवाच:<br />
<span style="color: #3333ff;">नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।<br />
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ (१८)</span> </div><br />
भावार्थ : उस महापुरुष के लिये इस संसार में न तो कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता रह जाती है और न ही कर्म को न करने का कोई कारण ही रहता है तथा उसे समस्त प्राणियों में से किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नही रहती है। (१८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।<br />
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥ (१९)</span> </div><br />
भावार्थ : अत: कर्म-फ़ल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर कर्म करते रहना चाहिये क्योंकि अनासक्त भाव से निरन्तर कर्तव्य-कर्म करने से मनुष्य को एक दिन परमात्मा की प्रप्ति हो जाती है। (१९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।<br />
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ (२०)</span> </div><br />
भावार्थ : राजा जनक जैसे अन्य मनुष्यों ने भी केवल कर्तव्य-कर्म करके ही परम-सिद्धि को प्राप्त की है, अत: संसार के हित का विचार करते हुए भी तेरे लिये कर्म करना ही उचित है। (२०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।<br />
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ (२१)</span> </div><br />
भावार्थ : महापुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य मनुष्य भी उसी का ही अनुसरण करते हैं, वह श्रेष्ठ-पुरुष जो कुछ आदर्श प्रस्तुत कर देता है, समस्त संसार भी उसी का अनुसरण करने लगता है। (२१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।<br />
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥ (२२)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! तीनों लोकों में मेरे लिये कोई भी कर्तव्य शेष नही है न ही किसी वस्तु का अभाव है न ही किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा है, फ़िर भी मैं कर्तव्य समझ कर कर्म करने में लगा रहता हूँ। (२२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।<br />
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ (२३)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पार्थ! यदि मैं नियत-कर्मों को सावधानी-पूर्वक न करूँ तो यह निश्चित है कि सभी मनुष्य मेरे ही मार्ग का ही अनुगमन करेंगे। (२३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।<br />
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥ (२४)</span> </div><br />
भावार्थ : इसलिए यदि मैं कर्तव्य समझ कर कर्म न करूँ तो ये सभी लोक भ्रष्ट हो जायेंगे तब मैं अवांछित-सृष्टि की उत्पत्ति का कारण हो जाऊँगा और इस प्रकार समस्त प्राणीयों को नष्ट करने वाला बन जाऊँगा। (२४)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (ज्ञानी और अज्ञानी के कर्म) </b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।<br />
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥ (२५)</span> </div><br />
भावार्थ : हे भरतवंशी! जिस प्रकार अज्ञानी मनुष्य फ़ल की इच्छा से कार्य <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सकाम-कर्म)</span></b> करते हैं, उसी प्रकार विद्वान मनुष्य को फ़ल की इच्छा के बिना संसार के कल्याण के लिये कार्य करना चाहिये। (२५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम् ।<br />
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥ (२६)</span> </div><br />
भावार्थ : विद्वान महापुरूष को चाहिए कि वह फ़ल की इच्छा वाले <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सकाम-कर्मी) </span></b>अज्ञानी मनुष्यों को कर्म करने से रोके नही जिससे उनकी बुद्धि भ्रमित न हो, बल्कि स्वयं कर्तव्य-कर्म को भली-प्रकार से करता हुआ उनसे भी भली-भाँति कराते रहना चाहिये। (२६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।<br />
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ (२७) </span> </div><br />
भावार्थ : जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं, अहंकार के प्रभाव से मोह-ग्रस्त होकर अज्ञानी मनुष्य स्वयं को कर्ता मानने लगता है। (२७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।<br />
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ (२८)</span> </div><br />
भावार्थ : परन्तु हे महाबाहु! परमतत्व को जानने वाला महापुरूष इन्द्रियों को और इन्द्रियों की क्रियाशीलता को प्रकृति के गुणों के द्वारा करता हुआ मानकर कभी उनमें आसक्त नहीं होता है। (२८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।<br />
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥ (२९)</span> </div><br />
भावार्थ : माया के प्रभाव से मोह-ग्रस्त हुए मनुष्य सांसारिक कर्मों के प्रति आसक्त होकर कर्म में लग जाते हैं, अत: पूर्ण ज्ञानी मनुष्य को चाहिये कि वह उन मन्द-बुद्धि<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सकाम-कर्मी)</span></b> वालों को विचलित न करे। (२९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।<br />
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥ (३०)</span> </div><br />
भावार्थ : अत: हे अर्जुन! अपने सभी प्रकार के कर्तव्य-कर्मों को मुझमें समर्पित करके पूर्ण आत्म-ज्ञान से युक्त होकर, आशा, ममता, और सन्ताप का पूर्ण रूप से त्याग करके युद्ध कर। (३०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।<br />
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ॥ (३१)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य मेरे इन आदेशों का ईर्ष्या-रहित होकर, श्रद्धा-पूर्वक अपना कर्तव्य समझ कर नियमित रूप से पालन करते हैं, वे सभी कर्मफ़लों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। (३१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।<br />
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥ (३२)</span> </div><br />
भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य ईर्ष्यावश इन आदेशों का नियमित रूप से पालन नही करते हैं, उन्हे सभी प्रकार के ज्ञान में पूर्ण रूप से भ्रमित और सब ओर से नष्ट-भ्रष्ट हुआ ही समझना चाहिये। (३२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।<br />
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ (३३)</span> </div><br />
भावार्थ : सभी मनुष्य प्रकृति के गुणों के अधीन होकर ही कार्य करते हैं, यधपि तत्वदर्शी ज्ञानी भी प्रकृति के गुणों के अनुसार ही कार्य करता दिखाई देता है, तो फिर इसमें कोई किसी का निराकरण क्या कर सकता है? (३३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।<br />
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ (३४)</span> </div><br />
भावार्थ : सभी इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्ति <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(राग) </span></b>और विरक्ति <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(द्वेष)</span></b> नियमों के अधीन स्थित होती है, मनुष्य को इनके आधीन नहीं होना चाहिए, क्योंकि दोनो ही आत्म-साक्षात्कार के पथ में अवरोध उत्पन्न करने वाले हैं। (३४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।<br />
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ (३५)</span> </div><br />
भावार्थ : दूसरों के कर्तव्य <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(धर्म)</span></b> को भली-भाँति अनुसरण<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(नकल) </span></b>करने की अपेक्षा अपना कर्तव्य-पालन <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(स्वधर्म)</span></b> को दोष-पूर्ण ढंग से करना भी अधिक कल्याणकारी होता है। दूसरे के कर्तव्य का अनुसरण करने से भय उत्पन्न होता है, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर होता है। (३५)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (कामना रूपी शत्रु का शमन) </b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाचः<br />
<span style="color: #3333ff;">अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।<br />
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ (३६)</span> </div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी किस की प्रेरणा से पाप-कर्म करता है, यधपि ऎसा लगता है कि उसे बल-पूर्वक पाप-कर्म के लिये प्रेरित किया जा रहा है। (३६)<br />
<br />
<div align="center">श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।<br />
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥ (३७)</span> </div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - इसका कारण रजोगुण से उत्पन्न होने वाले काम <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(विषय-वासना) </span></b>और क्रोध बडे़ पापी है, तू इन्हे ही इस संसार में अग्नि के समान कभी न तृप्त होने वाले महान-शत्रु समझ। (३७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।<br />
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥ (३८)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और धूल से दर्पण ढक जाता है तथा जिस प्रकार गर्भाशय से गर्भ ढका रहता है, उसी प्रकार कामनाओं से ज्ञान ढका रहता है। (३८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।<br />
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ (३९)</span> </div><br />
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र!! इस प्रकार शुद्ध चेतन स्वरूप जीवात्मा का ज्ञान कामना रूपी नित्य शत्रु द्वारा ढका रहता है जो कभी भी तुष्ट न होने वाली अग्नि की तरह जलता रहता है। (३९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।<br />
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥ (४०)</span> </div><br />
भावार्थ : इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि कामनाओं के निवास-स्थान होते हैं, इनके द्वारा कामनायें ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोह-ग्रस्त कर देती हैं। (४०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।<br />
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ (४१)</span> </div><br />
भावार्थ : अत: हे भरतवंशियों मे श्रेष्ठ! तू प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके और आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार में बाधा उत्पन्न करने वाली इन महान-पापी कामनाओं का ही बल-पूर्वक समाप्त कर। (४१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।<br />
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ (४२)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! इस जड़ पदार्थ शरीर की अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ है, इन्द्रियों की अपेक्षा मन श्रेष्ठ है, मन की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है तू वही सर्वश्रेष्ठ शुद्ध स्वरूप आत्मा है। (४२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।<br />
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥ (४३)</span> </div><br />
भावार्थ : इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन! स्वयं को मन और बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा-रूप समझकर, बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करके तू कामनाओं रूपी दुर्जय शत्रुओं को मार। (४३)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः॥ </span><br />
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में कर्म-योग नाम का तीसरा अध्याय संपूर्ण हुआ॥<br />
<br />
<span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥ </b></span> </div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-61534432647754495032010-07-30T19:30:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.146+05:30अध्याय चार का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong> श्रीभगवान कहते हैं: </strong> प्रिये ! अब मैं चौथे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो। गंगा के तट पर वाराणसी नाम की एक पुरी है, वहाँ विश्वनाथ जी के मन्दिर में भरत नाम के एक योग-निष्ठ महात्मा रहते थे, जो प्रतिदिन आत्म-चिन्तन में तत्पर हो आदर-पूर्वक गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ किया करते थे, उसके अभ्यास से उनका मन निर्मल हो गया था, वे सर्दी- गर्मी आदि द्वन्द्वों से कभी व्यथित नहीं होते थे।<br />
<br />
एक समय की बात है, वे तपोधन नगर की सीमा में स्थित देवताओं का दर्शन करने की इच्छा से भ्रमण करते हुए नगर से बाहर निकल गये, वहाँ बेर के दो वृक्ष थे, उन्हीं की जड़ में वे विश्राम करने लगे, एक वृक्ष की जड़ मे उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्ष के मूल में उनका पैर टिका हुआ था, थोड़ी देर बाद जब वे तपस्वी चले गये, तब बेर के वे दोनों वृक्ष पाँच-छः दिनों के भीतर ही सूख गये, उनमें पत्ते और डालियाँ भी नहीं रह गयीं, तत्पश्चात् वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मण के पवित्र गृह में दो कन्याओं के रूप में उत्पन्न हुए।<br />
<br />
वे दोनों कन्याएँ जब बढ़कर सात वर्ष की हो गयीं, तब एक दिन उन्होंने दूर देशों से घूमकर आते हुए भरत मुनि को देखा, उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणों में पड़ गयी और मीठी वाणी में बोलीं- 'मुनि ! आपकी ही कृपा से हम दोनों का उद्धार हुआ है, हमने बेर की योनि त्यागकर मानव-शरीर प्राप्त किया है,' उनके इस प्रकार कहने पर मुनि को बड़ा विस्मय हुआ, उन्होंने पूछाः 'पुत्रियो ! मैंने कब और किस साधन से तुम्हें मुक्त किया था? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेर होने के क्या कारण था? क्योंकि इस विषय में मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है।'<br />
<br />
तब वे कन्याएँ पहले उन्हे अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हुई बोलीं- 'मुनि ! गोदावरी नदी के तट पर छिन्नपाप नाम का एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्यों को पुण्य प्रदान करने वाला है, वह पावनता की चरम सीमा पर पहुँचा हुआ है, उस तीर्थ में सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे, वे ग्रीष्म ऋतु में प्रज्जवलित अग्नियों के बीच में बैठते थे। <br />
<br />
वारिश के समय में जल की धाराओं से उनके सिर के बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाड़े के समय में जल में निवास करने के कारण उनके शरीर में हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे, वे बाहर भीतर से सदा शुद्ध रहते, समय पर तपस्या करते तथा मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए परम शान्ति प्राप्त करके आत्मा में ही रमण करते थे, वे अपनी विद्वत्ता के द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे, उसे सुनने के लिए साक्षात् ब्रह्मा जी भी प्रति-दिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे, ब्रह्माजी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था, अतः उनके आने पर भी वे सदा तपस्या में मग्न रहते थे।<br />
<br />
परमात्मा के ध्यान में निरन्तर संलग्न रहने के कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी, सत्यतपा को जीवन-मुक्त के समान मान कर इन्द्र को अपने समृद्धिशाली पद के सम्बन्ध में कुछ भय हुआ, तब उन्होंने उनकी तपस्या में सैंकड़ों विघ्न डालने आरम्भ किये, अप्सराओं के समुदाय से हम दोनों को बुलाकर इन्द्र ने इस प्रकार आदेश दियाः 'तुम दोनों उस तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालो, जो मुझे इन्द्र-पद से हटा कर स्वयं स्वर्ग का राज्य भोगना चाहता है।'<br />
<br />
"इन्द्र का यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीर पर, जहाँ वे मुनि तपस्या करते थे, आयीं, वहाँ मन्द और गम्भीर स्वर से बजते हुए मृदंग तथा मधुर वेणुनाद के साथ हम दोनों ने अन्य अप्सराओं सहित मधुर स्वर में गाना आरम्भ किया, इतना ही नहीं उन योगी महात्मा को वश में करने के लिए हम लोग स्वर, ताल और लय के साथ नृत्य भी करने लगीं, बीच-बीच में जरा-जरा सा अंचल खिसकने पर उन्हें हमारी छाती भी दिख जाती थी, हम दोनों की उन्मत्त गति काम-भाव का जगाने वाली थी, किंतु उसने उन निर्विकार चित्तवाले महात्मा के मन में क्रोध का संचार कर दिया, तब उन्होंने हाथ से जल छोड़कर हमें क्रोधपूर्वक शाप दियाः 'अरी ! तुम दोनों गंगाजी के तट पर बेर के वृक्ष हो जाओ।'<br />
<br />
यह सुन कर हम लोगों ने बड़ी विनय के साथ कहाः 'महात्मन् ! हम दोनों पराधीन थीं, अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है उसे आप क्षमा करें,' यह कह कर हमने मुनि को प्रसन्न कर लिया, तब उन पवित्र चित्त वाले मुनि ने हमारे शाप उद्धार की अवधि निश्चित करते हुए कहाः 'भरत मुनि के आने तक ही तुम पर यह शाप लागू होगा, उसके बाद तुम लोगों का मृत्यु-लोक में जन्म होगा और पूर्व-जन्म की स्मृति बनी रहेगी। "मुनि ! जिस समय हम दोनों बेर-वृक्ष के रूप में खड़ी थीं, उस समय आपने हमारे समीप आकर गीता के चौथे अध्याय का जप करते हुए हमारा उद्धार किया था, अतः हम आपको प्रणाम करती हैं, आपने केवल शाप ही से नहीं, इस भयानक संसार से भी गीता के चतुर्थ अध्याय के पाठ द्वारा हमें मुक्त कर दिया।"<br />
<br />
<strong> श्रीभगवान कहते हैं: </strong> उन दोनों के इस प्रकार कहने पर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजित हो विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ भी बड़े आदर के साथ प्रति-दिन गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ करने लगीं, जिससे उनका उद्धार हो गया।<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-29917932234535232212010-07-20T19:45:00.001+05:302013-01-15T11:17:01.115+05:30अध्याय चार - दिव्यज्ञान-योग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaf6603Y-V9O7qnsv489wXjdsbqEQX40JZOyDDVajTcIXuOjER63LTiMKKK7ChOFfIA0yXIRw_FlmJqphm0i1WRP1uoc8a-KrUbnI5LbFh36l-aXpi55paadz_Jm_2Sx9xZJrK-mRt7tkp/s1600/Gita+(4).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaf6603Y-V9O7qnsv489wXjdsbqEQX40JZOyDDVajTcIXuOjER63LTiMKKK7ChOFfIA0yXIRw_FlmJqphm0i1WRP1uoc8a-KrUbnI5LbFh36l-aXpi55paadz_Jm_2Sx9xZJrK-mRt7tkp/s640/Gita+(4).jpg" width="640" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(कर्म-अकर्म और विकर्म का निरुपण)</b></span><b><br />
</b><br />
श्री भगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;"> इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।<br />
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥ (१)</span> </div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - मैंने इस अविनाशी योग-विधा का उपदेश सृष्टि के आरम्भ में विवस्वान <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सूर्य देव)</span></b> को दिया था, विवस्वान ने यह उपदेश अपने पुत्र मनुष्यों के जन्म-दाता मनु को दिया और मनु ने यह उपदेश अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को दिया। (१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;"> एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।<br />
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ (२)</span> </div><br />
भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार गुरु-शिष्य परम्परा से प्राप्त इस विज्ञान सहित ज्ञान को राज-ऋषियों ने बिधि-पूर्वक समझा, किन्तु समय के प्रभाव से वह परम-श्रेष्ठ विज्ञान सहित ज्ञान इस संसार से प्राय: छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया। (२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।<br />
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥ (३)</span> </div><br />
भावार्थ : आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग <b><span class="Apple-style-span" style="color: #33cc00;">(आत्मा का परमात्मा से मिलन का विज्ञान)</span></b> तुझसे कहा जा रहा है क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय मित्र भी है, अत: तू ही इस उत्तम रहस्य को समझ सकता है। (३)<br />
<br />
<div align="center">अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।<br />
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ (४)</span> </div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - सूर्य देव का जन्म तो सृष्टि के प्रारम्भ हुआ है और आपका जन्म तो अब हुआ है, तो फ़िर मैं कैसे समूझँ कि सृष्टि के आरम्भ में आपने ही इस योग का उपदेश दिया था? (४)<br />
<br />
<div align="center">श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।<br />
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ (५)</span> </div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं, मुझे तो वह सभी जन्म याद है लेकिन तुझे कुछ भी याद नही है। (५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।<br />
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ (६)</span> </div><br />
भावार्थ : यधपि मैं अजन्मा और अविनाशी समस्त जीवात्माओं का परमेश्वर <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(स्वामी)</span></b> होते हुए भी अपनी अपरा-प्रकृति <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(महा-माया)</span></b> को अधीन करके अपनी परा-प्रकृति (योग-माया) से प्रकट होता हूँ। (६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।<br />
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ (७)</span> </div><br />
भावार्थ : हे भारत! जब भी और जहाँ भी धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब मैं अपने स्वरूप को प्रकट करता हूँ। (७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।<br />
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ (८)</span> </div><br />
भावार्थ : भक्तों का उद्धार करने के लिए, दुष्टों का सम्पूर्ण विनाश करने के लिए तथा धर्म की फ़िर से स्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ। (८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।<br />
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ (९)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(अलौकिक)</span></b> हैं, इस प्रकार जो कोई वास्तविक स्वरूप से मुझे जानता है, वह शरीर को त्याग कर इस संसार मे फ़िर से जन्म को प्राप्त नही होता है, बल्कि मुझे अर्थात मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।<br />
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ (१०)</span> </div><br />
भावार्थ : आसक्ति, भय तथा क्रोध से सर्वथा मुक्त होकर, अनन्य-भाव <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(शुद्द भक्ति-भाव)</span></b> से मेरी शरणागत होकर बहुत से मनुष्य मेरे इस ज्ञान से पवित्र होकर तप द्वारा मुझे अपने-भाव से मेरे-भाव को प्राप्त कर चुके हैं। (१०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।<br />
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ (११)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! जो मनुष्य जिस भाव से मेरी शरण ग्रहण करता हैं, मैं भी उसी भाव के अनुरुप उनको फ़ल देता हूँ, प्रत्येक मनुष्य सभी प्रकार से मेरे ही पथ का अनुगमन करते हैं। (११)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।<br />
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ (१२)</span> </div><br />
भावार्थ : इस संसार में मनुष्य फल की इच्छा से<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सकाम-कर्म)</span></b> यज्ञ करते है और फ़ल की प्राप्ति के लिये वह देवताओं की पूजा करते हैं, उन मनुष्यों को उन कर्मों का फ़ल इसी संसार में निश्चित रूप से शीघ्र प्राप्त हो जाता है। (१२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।<br />
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥ (१३)</span> </div><br />
भावार्थ : प्रकृति के तीन गुणों <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सत, रज, तम)</span></b> के आधार पर कर्म को चार विभागों <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) </span></b>में मेरे द्वारा रचा गया, इस प्रकार मानव समाज की कभी न बदलने वाली व्यवस्था का कर्ता होने पर भी तू मुझे अकर्ता ही समझ। (१३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।<br />
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ (१४)</span> </div><br />
भावार्थ : कर्म के फल में मेरी आसक्ति न होने के कारण कर्म मेरे लिये बन्धन उत्पन्न नहीं कर पाते हैं, इस प्रकार से जो मुझे जान लेता है, उस मनुष्य के कर्म भी उसके लिये कभी बन्धन उत्पन्न नही करते हैं। (१४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।<br />
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥ (१५)</span> </div><br />
भावार्थ : पूर्व समय में भी सभी प्रकार के कर्म-बन्धन से मुक्त होने की इच्छा वाले मनुष्यों ने मेरी इस दिव्य प्रकृति को समझकर कर्तव्य-कर्म करके मोक्ष की प्राप्ति की, इसलिए तू भी उन्ही का अनुसरण करके अपने कर्तव्य का पालन कर। (१५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।<br />
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥ (१६)</span> </div><br />
भावार्थ : कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इस विषय में बडे से बडे बुद्धिमान मनुष्य भी मोहग्रस्त रहते हैं, इसलिए उन कर्म को मैं तुझे भली-भाँति समझा कर कहूँगा, जिसे जानकर तू संसार के कर्म-बंधन से मुक्त हो सकेगा। (१६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।<br />
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ (१७)</span> </div><br />
भावार्थ : कर्म को भी समझना चाहिए तथा अकर्म को भी समझना चाहिए और विकर्म को भी समझना चाहिए क्योंकि कर्म की सूक्ष्मता को समझना अत्यन्त कठिन है। (१७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।<br />
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥ (१८)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य कर्म में अकर्म <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(शरीर को कर्ता न समझकर आत्मा को कर्ता) </span></b> देखता है और जो मनुष्य अकर्म में कर्म<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(आत्मा को कर्ता न समझकर प्रकृति को कर्ता) </span></b>देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह मनुष्य समस्त कर्मों को करते हुये भी सांसारिक कर्मफ़लों से मुक्त रहता है। (१८)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (महापुरुषों का आचरण) </b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।<br />
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥ (१९)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस मनुष्य के निश्चय किये हुए सभी कार्य बिना फ़ल की इच्छा के पूरी लगन से सम्पन्न होते हैं तथा जिसके सभी कर्म ज्ञान-रूपी अग्नि में भस्म हो गए हैं, बुद्धिमान लोग उस महापुरुष को पूर्ण-ज्ञानी कहते हैं। (१९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।<br />
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥ (२०)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य अपने सभी कर्म-फलों की आसक्ति का त्याग करके सदैव सन्तुष्ट तथा स्वतन्त्र रहकर कार्यों में पूर्ण व्यस्त होते हुए भी वह मनुष्य निश्चित रूप से कुछ भी नहीं करता है। (२०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।<br />
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ (२१)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस मनुष्य ने सभी प्रकार के कर्म-फ़लों की आसक्ति और सभी प्रकार की सम्पत्ति के स्वामित्व का त्याग कर दिया है, ऎसा शुद्ध मन तथा स्थिर बुद्धि वाला, केवल शरीर-निर्वाह के लिए कर्म करता हुआ कभी पाप-रूपी फ़लों को प्राप्त नही होता है। (२१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः ।<br />
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ (२२)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य स्वत: प्राप्त होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो सभी द्वन्द्वो से मुक्त और किसी से ईर्ष्या नही करता है, जो सफ़लता और असफ़लता में स्थिर रहता है यधपि सभी प्रकार के कर्म करता हुआ कभी बँधता नही है। (२२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।<br />
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥ (२३)</span> </div><br />
भावार्थ : प्रकृति के गुणों से मुक्त हुआ तथा ब्रह्म-ज्ञान में पूर्ण रूप से स्थित और अच्छी प्रकार से कर्म का आचरण करने वाले मनुष्य के सभी कर्म ज्ञान रूप ब्रह्म में पूर्ण रूप से विलीन हो जाते हैं। (२३)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (यज्ञ और यज्ञ-फ़ल) </b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम् ।<br />
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ (२४)</span> </div><br />
भावार्थ : ब्रह्म-ज्ञान में स्थित उस मुक्त पुरूष का समर्पण ब्रह्म होता है, हवन की सामग्री भी ब्रह्म होती है, अग्नि भी ब्रह्म होती है, तथा ब्रह्म-रूपी अग्नि में ब्रह्म-रूपी कर्ता द्वारा जो हवन किया जाता है वह ब्रह्म ही होता है, जिसके कर्म ब्रह्म का स्पर्श करके ब्रह्म में विलीन हो चुके हैं ऎसे महापुरूष को प्राप्त होने योग्य फल भी ब्रह्म ही होता हैं। (२४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।<br />
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ (२५)</span> </div><br />
भावार्थ : कुछ मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा देवताओं की भली-भाँति पूजा करते हैं और इस प्रकार कुछ मनुष्य परमात्मा रूपी अग्नि में ध्यान-रूपी यज्ञ द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। (२५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।<br />
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ (२६)</span> </div><br />
भावार्थ : कुछ मनुष्य सभी ज्ञान-इन्द्रियों के विषयों को संयम-रूपी अग्नि में हवन करते हैं और कुछ मनुष्य इन्द्रियों के विषयों को इन्द्रिय-रूपी अग्नि में हवन करते हैं। (२६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।<br />
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ (२७)</span> </div><br />
भावार्थ : कुछ मनुष्य सभी इन्द्रियों को वश में करके प्राण-वायु के कार्यों को मन के संयम द्वारा आत्मा को जानने की इच्छा से आत्म-योग रूपी अग्नि में हवन करते हैं। (२७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।<br />
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥ (२८)</span> </div><br />
भावार्थ : कुछ मनुष्य धन-सम्पत्ति के दान द्वारा, कुछ मनुष्य तपस्या द्वारा और कुछ मनुष्य अष्टांग योग के अभ्यास द्वारा यज्ञ करते हैं, कुछ अन्य मनुष्य वेद-शास्त्रों का अध्यन करके ज्ञान में निपुण होकर और कुछ मनुष्य कठिन व्रत धारण करके यज्ञ करते है। (२८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।<br />
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥ (२९)</span> </div><br />
भावार्थ : बहुत से मनुष्य अपान-वायु में प्राण-वायु का, उसी प्रकार प्राण-वायु में अपान-वायु का हवन करते हैं तथा अन्य मनुष्य प्राण-वायु और अपान-वायु की गति को रोक कर समाधि मे प्रवृत होते है। (२९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।<br />
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥ (३०)</span> </div><br />
भावार्थ : कुछ मनुष्य भोजन को कम करके प्राण-वायु को प्राण-वायु में ही हवन किया करते हैं, ये सभी यज्ञ करने वाले यज्ञों का अर्थ जानने के कारण सभी पाप-कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। (३०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।<br />
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ (३१)</span> </div><br />
भावार्थ : हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञों के फ़ल रूपी अमृत को चखकर यह सभी योगी सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं, और यज्ञ को न करने वाले मनुष्य तो इस जीवन में भी सुख-पूर्वक नहीं रह सकते है, तो फिर अगले जीवन में कैसे सुख को प्राप्त हो सकते है? (३१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।<br />
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥ (३२)</span> </div><br />
भावार्थ : इसी प्रकार और भी अनेकों प्रकार के यज्ञ वेदों की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं, इस तरह उन सबको कर्म से उत्पन्न होने वाले जानकर तू कर्म-बंधन से हमेशा के लिये मुक्त हो जाएगा। (३२)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (ज्ञान की महिमा) </b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।<br />
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ (३३)</span> </div><br />
भावार्थ : हे परंतप अर्जुन! धन-सम्पदा के द्वारा किये जाने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान-यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा सभी प्रकार के कर्म ब्रह्म-ज्ञान में पूर्ण-रूप से समाप्त हो जाते हैं। (३३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।<br />
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥ (३४)</span> </div><br />
भावार्थ : यज्ञों के उस ज्ञान को तू गुरू के पास जाकर समझने का प्रयत्न कर, उनके प्रति पूर्ण-रूप से शरणागत होकर सेवा करके विनीत-भाव से जिज्ञासा करने पर वे तत्वदर्शी ब्रह्म-ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्व-ज्ञान का उपदेश करेंगे। (३४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।<br />
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ (३५)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पाण्डुपुत्र! उस तत्व-ज्ञान को जानकर फिर तू कभी इस प्रकार के मोह को प्राप्त नही होगा तथा इस जानकारी के द्वारा आचरण करके तू सभी प्राणीयों में अपनी ही आत्मा का प्रसार देखकर मुझ परमात्मा में प्रवेश पा सकेगा। (३५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।<br />
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥ (३६)</span> </div><br />
भावार्थ : यदि तू सभी पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू मेरे ज्ञान-रूपी नौका द्वारा निश्चित रूप से सभी प्रकार के पापों से छूटकर संसार-रूपी दुख के सागर को पार कर जाएगा। (३६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।<br />
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ (३७)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! जिस प्रकार अग्नि ईंधन को जला कर भस्म कर देती है, उसी प्रकार यह ज्ञान-रूपी अग्नि सभी सांसारिक कर्म-फ़लों को जला कर भस्म कर देती है। (३७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।<br />
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ (३८)</span> </div><br />
भावार्थ : इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है, इस ज्ञान को तू स्वयं अपने हृदय में योग की पूर्णता के समय अपनी ही आत्मा में अनुभव करेगा। (३८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।<br />
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ (३९)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य पूर्ण श्रद्धावान है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वही मनुष्य दिव्य-ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्क्षण भगवत-प्राप्ति रूपी परम-शान्ति को प्राप्त हो जाता है। (३९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।<br />
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ (४०)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस मनुष्य को शास्त्रों का ज्ञान नही है, शास्त्रों पर श्रद्धा नही है और शास्त्रों को शंका की दृष्टि से देखता है वह मनुष्य निश्चित रूप से भ्रष्ट हो जाता है, इस प्रकार भ्रष्ट हुआ संशयग्रस्त मनुष्य न तो इस जीवन में और न ही अगले जीवन में सुख को प्राप्त होता है। (४०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम् ।<br />
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥ (४१)</span> </div><br />
भावार्थ : हे धनंजय! जिस मनुष्य ने अपने समस्त कर्म के फ़लों का त्याग कर दिया है और जिसके दिव्य-ज्ञान द्वारा समस्त संशय मिट गये हैं, ऐसे आत्म-परायण मनुष्य को कर्म कभी नहीं बाँधते है। (४१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।<br />
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥ (४२)</span> </div><br />
भावार्थ : अत: हे भरतवंशी अर्जुन! तू अपने हृदय में स्थित इस अज्ञान से उत्पन्न अपने संशय को ज्ञान-रूपी शस्त्र से काट, और योग में स्थित होकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा। (४२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दिव्यज्ञानयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ </span><br />
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में दिव्यज्ञान-योग नाम का चौथा अध्याय संपूर्ण हुआ ॥<br />
<br />
<span style="color: #006600;"><b> ॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥ </b></span> </div></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-45135470109815684782010-07-10T19:15:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.129+05:30अध्याय पाँच का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong> श्री भगवान कहते हैं: </strong> हे देवी! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पाँचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेप में बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनो। मद्र देश में पुरुकुत्सपुर नामक एक नगर है, उसमें पिंगल नामक एक ब्राह्मण रहता था, वह वेदपाठी ब्राह्मणों के विख्यात वंश में, जो सर्वदा निष्कलंक था, उत्पन्न हुआ था, किंतु अपने कुल के लिए उचित वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय को छोड़कर ढोल बजाते हुए उसने नाच-गान में मन लगाया, गीत, नृत्य और बाजा बजाने की कला में परिश्रम करके पिंगल ने बड़ी प्रसिद्धी प्राप्त कर ली और उसी से उसका राज भवन में भी प्रवेश हो गया।<br />
<br />
वह राजा के साथ रहने लगा, स्त्रियों के सिवा और कहीं उसका मन नहीं लगता था, धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जाने से उच्छ्रंखल होकर वह एकान्त में राजा से दूसरों के दोष बतलाने लगा, पिंगल की एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा, वह नीच कुल में उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषों के साथ विहार करने की इच्छा से सदा उन्हीं की खोज में घूमा करती थी, उसने पति को अपने मार्ग का कण्टक समझकर एक दिन आधी रात में घर के भीतर ही उसका सिर काटकर मार डाला और उसकी लाश को जमीन में गाड़ दिया, इस प्रकार प्राणों से वियुक्त होने पर वह यमलोक पहुँचा और भीषण नरकों का उपभोग करके निर्जन वन में गिद्ध हुआ।<br />
<br />
अरुणा भी भगन्दर रोग से अपने सुन्दर शरीर को त्याग कर घोर नरक भोगने के पश्चात उसी वन में शुकी हुई, एक दिन वह दाना चुगने की इच्छा से इधर उधर फुदक रही थी, इतने में ही उस गिद्ध ने पूर्वजन्म के वैर का स्मरण करके उसे अपने तीखे नखों से फाड़ डाला, शुकी घायल होकर पानी से भरी हुई मनुष्य की खोपड़ी में गिरी, गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा, इतने में ही जाल फैलाने वाले बहेलियों ने उसे भी बाणों का निशाना बनाया, उसकी पूर्वजन्म की पत्नी शुकी उस खोपड़ी के जल में डूबकर प्राण त्याग चुकी थी, फिर वह क्रूर पक्षी भी उसी में गिर कर डूब गया।<br />
<br />
यमराज के दूत उन दोनों को यमलोक में ले गये, वहाँ अपने पूर्वकृत पाप कर्म को याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे, तदनन्तर यमराज ने जब उनके घृणित कर्मों पर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्यु के समय अकस्मात् खोपड़ी के जल में स्नान करने से इन दोनों का पाप नष्ट हो चुका है, तब उन्होंने उन दोनों को मनोवांछित लोक में जाने की आज्ञा दी, यह सुनकर अपने पाप को याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मय में पड़े और पास जाकर धर्मराज के चरणों में प्रणाम करके पूछने लगेः "भगवन ! हम दोनों ने पूर्वजन्म में अत्यन्त घृणित पाप का संचय किया है, फिर हमें मनोवाञ्छित लोकों में भेजने का क्या कारण है?"<br />
<br />
<strong> यमराज ने कहा: </strong> गंगा के किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्म-ज्ञानी रहते थे, वे एकान्तवासी, ममतारहित, शान्त, विरक्त और किसी से भी द्वेष न रखने वाले थे, प्रतिदिन गीता के पाँचवें अध्याय का जप करना उनका सदा नियम था, पाँचवें अध्याय को श्रवण कर लेने पर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उसी पुण्य के प्रभाव से शुद्ध चित्त होकर उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया था, गीता के पाठ से जिनका शरीर निर्मल हो गया था, जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे, उन्ही महात्मा की खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गये, अतः अब तुम दोनों मनोवाञ्छित लोकों को जाओ, क्योंकि गीता के पाँचवें अध्याय के माहात्म्य से तुम दोनों शुद्ध हो गये हो।<br />
<br />
<strong> श्री भगवान कहते हैं: </strong> सबके प्रति समान भाव रखने वाले धर्मराज के द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमान पर बैठकर वैकुण्ठधाम को चले गये।<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-58054576490375022862010-07-01T19:30:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.144+05:30अध्याय पाँच - कर्मसांख्य-योग<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg72ZJirKWnPT74S4LIEjMX1XtvdY4ChWo-qOPmUV28JHaRjVv8F9Tsd-03rLiSAKUjLl7K8U2Yqga73CkdAVBCkbIlf6KveE06w5MAxCZn62TqyfZw66_fWptt2Cr-Ef_NMZ9AI5Jl7emR/s1600/Gita+(5).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="482" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg72ZJirKWnPT74S4LIEjMX1XtvdY4ChWo-qOPmUV28JHaRjVv8F9Tsd-03rLiSAKUjLl7K8U2Yqga73CkdAVBCkbIlf6KveE06w5MAxCZn62TqyfZw66_fWptt2Cr-Ef_NMZ9AI5Jl7emR/s640/Gita+(5).jpg" width="640" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(सांख्य-योग और कर्म-योग के भेद)</b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;"> संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।<br />
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥ (१) </span> </div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! कभी आप सन्यास-माध्यम<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सर्वस्व का न्यास=ज्ञान योग) </span></b>से कर्म करने की और कभी निष्काम माध्यम से कर्म करने <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(निष्काम कर्म-योग)</span></b> की प्रशंसा करते हैं, इन दोनों में से एक जो आपके द्वारा निश्चित किया हुआ हो और जो परम-कल्याणकारी हो उसे मेरे लिये कहिए। (१)<br />
<br />
<div align="center">श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ । <br />
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ (२)</span> </div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - सन्यास माध्यम से किया जाने वाला कर्म <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सांख्य-योग) </span></b>और निष्काम माध्यम से किया जाने वाला कर्म <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(कर्म-योग)</span></b>, ये दोनों ही परमश्रेय को दिलाने वाला है परन्तु सांख्य-योग की अपेक्षा निष्काम कर्म-योग श्रेष्ठ है। (२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।<br />
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ (३)</span> </div><br />
भावार्थ : हे महाबाहु! जो मनुष्य न तो किसी से घृणा करता है और न ही किसी की इच्छा करता है, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि ऎसा मनुष्य राग-द्वेष आदि सभी द्वन्द्धों को त्याग कर सुख-पूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है। (३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।<br />
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥ (४) </span> </div><br />
भावार्थ : अल्प-ज्ञानी मनुष्य ही <b>"सांख्य-योग"</b> और <b>"निष्काम कर्म-योग"</b> को अलग-अलग समझते है न कि पूर्ण विद्वान मनुष्य, क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फल-रूप परम-सिद्धि को प्राप्त होता है। (४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।<br />
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ (५)</span> </div><br />
भावार्थ : जो ज्ञान-योगियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, वही निष्काम कर्म-योगियों को भी प्राप्त होता है, इसलिए जो मनुष्य सांख्य-योग और निष्काम कर्म-योग दोनों को फल की दृष्टि से एक देखता है, वही वास्तविक सत्य को देख पाता है। (५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।<br />
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ (६)</span> </div><br />
भावार्थ : हे महाबाहु! निष्काम कर्म-योग <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(भक्ति-योग) </span></b>के आचरण के बिना <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(संन्यास)</span></b> सर्वस्व का त्याग दुख का कारण होता है और भगवान के किसी भी एक स्वरूप को मन में धारण करने वाला "<b>निष्काम कर्म-योगी</b>" परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र प्राप्त हो जाता है। (६)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(कर्म-योग मे स्थित जीवात्मा के लक्षण)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।<br />
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ (७)</span> </div><br />
भावार्थ :<b> "कर्म-योगी"</b> इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला होता है और सभी प्राणीयों की आत्मा का मूल-स्रोत परमात्मा में निष्काम भाव से मन को स्थित करके कर्म करता हुआ भी कभी कर्म से लिप्त नहीं होता है। (७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।<br />
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ॥ (८)</span> </div><br />
भावार्थ : <b>"कर्म-योगी"</b> परमतत्व-परमात्मा की अनुभूति करके दिव्य चेतना मे स्थित होकर देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वांस लेता हुआ इस प्रकार यही सोचता है कि मैं कुछ भी नही करता हूँ। (८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।<br />
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥ (९)</span> </div><br />
भावार्थ : <b>"कर्म-योगी"</b> बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और बन्द करता हुआ भी, यही सोचता है कि सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त हो रही हैं, ऎसी धारणा वाला होता है। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।<br />
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ (१०) </span> </div><br />
भावार्थ : <b>"कर्म-योगी" </b>सभी कर्म-फ़लों को परमात्मा को समर्पित करके निष्काम भाव से कर्म करता है, तो उसको पाप-कर्म कभी स्पर्श नही कर पाते है, जिस प्रकार कमल का पत्ता जल को स्पर्श नही कर पाता है। (१०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।<br />
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ (११)</span> </div><br />
भावार्थ :<b> "कर्म-योगी" </b>निष्काम भाव से शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा केवल आत्मा की शुद्धि के लिए ही कर्म करते हैं। (११)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।<br />
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ (१२)</span> </div><br />
भावार्थ : <b>"कर्म-योगी"</b> सभी कर्म के फलों का त्याग करके परम-शान्ति को प्राप्त होता है और जो योग में स्थित नही वह कर्म-फ़ल को भोगने की इच्छा के कारण कर्म-फ़ल में आसक्त होकर बँध जाता है। (१२)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (सांख्य-योग मे स्थित जीवात्मा के लक्षण)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।<br />
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥ (१३)</span> </div><br />
भावार्थ : शरीर में स्थित जीवात्मा मन से समस्त कर्मों का परित्याग करके, वह न तो कुछ करता है और न ही कुछ करवाता है तब वह नौ-द्वारों वाले नगर <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(स्थूल-शरीर)</span></b> में आनंद-पूर्वक आत्म-स्वरूप में स्थित रहता है। (१३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।<br />
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ (१४)</span> </div><br />
भावार्थ : शरीर में स्थित जीवात्मा देह का कर्ता न होने के कारण इस लोक में उसके द्वारा न तो कर्म उत्पन्न होते हैं और न ही कर्म-फलों से कोई सम्बन्ध रहता है बल्कि यह सब प्रकृति के गुणों के द्वारा ही किये जाते है। (१४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।<br />
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ (१५)</span> </div><br />
भावार्थ : शरीर में स्थित परमात्मा न तो किसी के पाप-कर्म को और न ही किसी के पुण्य-कर्म को ग्रहण करता है किन्तु जीवात्मा मोह से ग्रसित होने के कारण परमात्मा जीव के वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है। (१५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।<br />
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥ (१६)</span> </div><br />
भावार्थ : किन्तु जब मनुष्य का अज्ञान तत्वज्ञान <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(परमात्मा का ज्ञान)</span></b> द्वारा नष्ट हो जाता है, तब उसके ज्ञान के दिव्य प्रकाश से उसी प्रकार परमतत्व-परमात्मा प्रकट हो जाता है जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से संसार की सभी वस्तुएँ प्रकट हो जाती है। (१६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।<br />
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ (१७)</span> </div><br />
भावार्थ : जब मनुष्य बुद्धि और मन से परमात्मा की शरण-ग्रहण करके परमात्मा के ही स्वरूप में पूर्ण श्रद्धा-भाव से स्थित होता है तब वह मनुष्य तत्वज्ञान के द्वारा सभी पापों से शुद्ध होकर पुनर्जन्म को प्राप्त न होकर मुक्ति को प्राप्त होता हैं। (१७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।<br />
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ (१८)</span> </div><br />
भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य विद्वान ब्राह्मण और विनम्र साधु को तथा गाय, हाथी, कुत्ता और नर-भक्षी को एक समान दृष्टि से देखने वाला होता हैं। (१८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।<br />
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ (१९)</span> </div><br />
भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य का मन सम-भाव में स्थित रहता है, उसके द्वारा जन्म-मृत्यु के बन्धन रूपी संसार जीत लिया जाता है क्योंकि वह ब्रह्म के समान निर्दोष होता है और सदा परमात्मा में ही स्थित रहता हैं। (१९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।<br />
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ (२०)</span> </div><br />
भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य न तो कभी किसी भी प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित है और न ही अप्रिय वस्तु को पाकर विचलित होता है, ऎसा स्थिर बुद्धि, मोह-रहित, ब्रह्म को जानने वाला सदा परमात्मा में ही स्थित रहता है। (२०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।<br />
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ (२१)</span> </div><br />
भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य बाहरी इन्द्रियों के सुख को नही भोगता है, बल्कि सदैव अपनी ही आत्मा में रमण करके सुख का अनुभव करता है, ऎसा मनुष्य निरन्तर परब्रह्म परमात्मा में स्थित होकर असीम आनन्द को भोगता है। (२१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।<br />
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ (२२)</span> </div><br />
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! इन्द्रियों और इन्द्रिय विषयों के स्पर्श से उत्पन्न, कभी तृप्त न होने वाले यह भोग, प्रारम्भ में सुख देने वाले होते है, और अन्त में निश्चित रूप से दुख-योनि के कारण होते है, इसी कारण तत्वज्ञानी कभी भी इन्द्रिय सुख नही भोगता है। (२२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।<br />
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥ (२३)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य शरीर का अन्त होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही मनुष्य योगी है और वही इस संसार में सुखी रह सकता है। (२३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।<br />
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ (२४)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य अपनी आत्मा में ही सुख चाहने वाला होता है, और अपने मन को अपनी ही आत्मा में स्थिर रखने वाला होता है जो आत्मा में ही ज्ञान प्राप्त करने वाला होता है, वही मनुष्य योगी है और वही ब्रह्म के साथ एक होकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है। (२४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।<br />
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ (२५)</span> </div><br />
भावार्थ : जिनके सभी पाप और सभी प्रकार दुविधाएँ ब्रह्म का स्पर्श करके मिट गयीं हैं, जो समस्त प्राणियों के कल्याण में लगे रहते हैं वही ब्रह्म-ज्ञानी मनुष्य मन को आत्मा में स्थित करके परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं। (२५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।<br />
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥ (२६)</span> </div><br />
भावार्थ : सभी सांसारिक इच्छाओं और क्रोध से पूर्ण-रूप से मुक्त, स्वरूपसिद्ध, आत्मज्ञानी, आत्मसंयमी योगी को सभी ओर से प्राप्त परम-शान्ति स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही होता है। (२६)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (भक्ति-युक्त ध्यान-योग का निरूपण)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।<br />
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ (२७)<br />
<br />
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।<br />
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ (२८)</span> </div><br />
भावार्थ : सभी इन्द्रिय-विषयों का चिन्तन बाहर ही त्याग कर और आँखों की दृष्टि को भोंओं के मध्य में केन्द्रित करके प्राण-वायु और अपान-वायु की गति नासिका के अन्दर और बाहर सम करके मन सहित इन्द्रियों और बुद्धि को वश में करके मोक्ष के लिये तत्पर इच्छा, भय और क्रोध से रहित हुआ योगी सदैव मुक्त ही रहता है (२७-२८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।<br />
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ (२९)</span> </div><br />
भावार्थ : ऎसा मुक्त पुरूष मुझे सभी यज्ञों और तपस्याओं को भोगने वाला, सभी लोकों और देवताओं का परमेश्वर तथा सम्पूर्ण जीवों पर उपकार करने वाला परम-दयालु एवं हितैषी जानकर परम-शान्ति को प्राप्त होता है। (२९)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;"> ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसांख्ययोगो नाम पंचमोऽध्यायः॥</span><br />
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में कर्मसांख्य-योग नाम का पाँचवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ॥<br />
<br />
<span style="color: #006600;"><b> ॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥ </b></span> </div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-7087800596451731502010-06-30T08:29:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.151+05:30अध्याय छह का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong> श्री भगवान कहते हैं: </strong> सुमुखि ! अब मैं छठे अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुनने वाले मनुष्यों के लिए मुक्ति आसान हो जाती है, गोदावरी नदी के तट पर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) नामक एक विशाल नगर है, जहाँ मैं पिप्लेश के नाम से विख्यात होकर रहता हूँ, उस नगर में जनश्रुति नामक एक राजा रहते थे, जो भूमण्डल की प्रजा को अत्यन्त प्रिये थे, उनका प्रताप मार्तण्ड-मण्डल के प्रचण्ड तेज के समान जान पड़ता था। <br />
<br />
प्रतिदिन होने वाले उनके यज्ञ के धुएँ से नन्दनवन के कल्पवृक्ष इस प्रकार काले पड़ गये थे, मानो राजा की असाधारण दान-शीलता देखकर वे लज्जित हो गये हों, उनके यज्ञ में प्राप्त पुरोडाश के रसास्वादन में सदा आसक्त होने के कारण देवता लोग कभी प्रतिष्ठानपुर को छोड़कर बाहर नहीं जाते थे, उनके दान के समय छोड़े हुए जल की धारा, प्रताप-रूपी तेज और यज्ञ के धूमों से पुष्ट होकर मेघ ठीक समय पर वर्षा करते थे। <br />
<br />
उस राजा के शासन काल में खेती में होने वाले छः प्रकार के उपद्रवों के लिए कहीं थोड़ा भी स्थान नहीं मिलता था और अच्छी नीतियों का सर्वत्र प्रसार होता था, वे बावडी़, कुएँ और पोखरें खुदवाने के बहाने मानो प्रतिदिन पृथ्वी के भीतर की निधियों का अवलोकन करते थे, एक समय राजा के दान, तप, यज्ञ और प्रजा-पालन से संतुष्ट होकर स्वर्ग के देवता उन्हें वर देने के लिए आये, वे कमल-नाल के समान उज्जवल हंसों का रूप धारण कर अपनी पँख हिलाते हुए आकाश मार्ग से चलने लगे, <br />
<br />
उड़ते हुए वे सभी हंस परस्पर बातचीत भी करते जाते थे, उनमें से भद्राश्व आदि दो-तीन हंस वेग से उड़कर आगे निकल गये, तब पीछे वाले हंसों ने आगे जाने वालों को सम्बोधित करके कहाः "अरे भाई भद्राश्व ! तुम लोग वेग से चलकर आगे क्यों हो गये? यह मार्ग बड़ा दुर्गम है, इसमें हम सबको साथ मिलकर चलना चाहिए, क्या तुम्हे दिखाई नहीं देता, यह सामने ही पुण्यमूर्ति महाराज जानश्रुति का तेजपुंज अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रकाशमान हो रहा है? उस तेज से भस्म होने की आशंका है, अतः सावधान होकर चलना चाहिए।" पीछेवाले हंसों के ये वचन सुनकर आगे वाले हंस हँस पड़े और उच्च स्वर से उनकी बातों की अवहेलना करते हुए बोलेः "अरे भाई ! क्या इस राजा जानश्रुति का तेज ब्रह्मवादी महात्मा रैक्व के तेज से भी अधिक तीव्र है?" <br />
<br />
हंसों की ये बातें सुनकर राजा जानश्रुति अपने ऊँचे महल की छत से उतर गये और सुखपूर्वक आसन पर विराजमान हो अपने सारथि को बुलाकर बोलेः "जाओ, महात्मा रैक्व को यहाँ ले आओ", राजा का यह अमृत के समान वचन सुनकर मह नामक सारथी प्रसन्नता प्रकट करता हुआ नगर से बाहर निकला, सबसे पहले उसने मुक्ति दायिनी काशी पुरी की यात्रा की, जहाँ जगत के स्वामी भगवान विश्वनाथ मनुष्यों को उपदेश दिया करते हैं, उसके बाद वह गया क्षेत्र में पहुँचा, जहाँ प्रफुल्ल नेत्रों वाले भगवान गदाधर सम्पूर्ण लोकों का उद्धार करने के लिए निवास करते हैं। <br />
<br />
तदनन्तर नाना तीर्थों में भ्रमण करता हुआ सारथी पाप नाशिनी मथुरा पुरी में गया, यह भगवान श्री कृष्ण का आदि स्थान है, जो परम महान तथा मोक्ष प्रदान कराने वाला है, वेद और शास्त्रों में वह तीर्थ त्रिभुवन-पति भगवान गोविन्द के अवतार स्थान के नाम से प्रसिद्ध है, नाना देवता और ब्रह्मर्षि उसका सेवन करते हैं, मथुरा नगर यमुना के किनारे शोभा पाता है, उसकी आकृति अर्द्धचन्द्र के समान प्रतीत होती है, वह सब तीर्थों के निवास से परिपूर्ण है, परम आनन्द प्रदान करने के कारण सुन्दर प्रतीत होता है, गोवर्धन पर्वत होने से मथुरा मण्डल की शोभा और भी बढ़ गयी है, वह पवित्र वृक्षों और लताओं से आवृत्त है, उसमें बारह वन हैं, वह परम पुण्यमय था सबको विश्राम देने वाले श्रुतियों के सारभूत भगवान श्रीकृष्ण की आधार भूमि है।<br />
<br />
तत्पश्चात मथुरा से पश्चिम और उत्तर दिशा की ओर बहुत दूर तक जाने पर सारथी को काश्मीर नामक नगर दिखाई दिया, जहाँ शंख के समान उज्जवल गगनचुम्बी महलों की पंक्तियाँ भगवान शंकर के अट्टहास की शोभा पाती हैं, जहाँ ब्राह्मणों के शास्त्रीय आलाप सुनकर मूक मनुष्य भी सुन्दर वाणी और पर्दों का उच्चारण करते हुए देवता के समान हो जाते हैं, जहाँ निरन्तर होने वाले यज्ञ-धूम से व्याप्त होने के कारण आकाश-मंडल मेघों से धुलते रहने पर भी अपनी कालिमा नहीं छोड़ते, जहाँ उपाध्याय के पास आकर छात्र जन्म कालीन अभ्यास से ही सम्पूर्ण कलाएँ स्वतः पढ़ लेते हैं तथा जहाँ मणिकेश्वर नाम से प्रसिद्ध भगवान चन्द्रशेखर देहधारियों को वरदान देने के लिए नित्य निवास करते हैं। <br />
<br />
काश्मीर के राजा मणिकेश्वर ने दिग्विजय में समस्त राजाओं को जीतकर भगवान शिव का पूजन किया था, तभी से उनका नाम मणिकेश्वर हो गया था, उन्हीं के मन्दिर के दरवाजे पर महात्मा रैक्व एक छोटी सी गाड़ी पर बैठे अपने अंगों को खुजलाते हुए वृक्ष की छाया का सेवन कर रहे थे, इसी अवस्था में सारथी ने उन्हें देखा, राजा के बताये हुए भिन्न-भिन्न चिह्नों से उसने शीघ्र ही रैक्व को पहचान लिया और उनके चरणों में प्रणाम करके कहाः "ब्राह्मण ! आप किस स्थान पर रहते हैं? आपका पूरा नाम क्या है? आप तो सदा स्वच्छंद विचरने वाले हैं, फिर यहाँ किसलिए ठहरे हैं? इस समय आपका क्या करने का विचार है?" <br />
<br />
सारथी के ये वचन सुनकर परमानन्द में निमग्न महात्मा रैक्व ने कुछ सोचकर उससे कहाः "यद्यपि हम पूर्णकाम हैं – हमें किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, तथापि कोई भी हमारी मनोवृत्ति के अनुसार परिचर्या कर सकता है," रैक्व के हार्दिक अभिप्राय को आदप-पूर्वक ग्रहण करके सारथी धीरे से राजा के पास चल दिया, वहाँ पहुँचकर राजा को प्रणाम करके उसने हाथ जोड़कर सारा समाचार निवदेन किया, उस समय स्वामी के दर्शन से उसके मन में बड़ी प्रसन्नता थी, सारथि के वचन सुनकर राजा के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे। <br />
<br />
उनके हृदय में रैक्व का सत्कार करने की श्रद्धा जागृत हुई, उन्होंने दो खच्चरियों से जुती हुई गाड़ी लेकर यात्रा की, साथ ही मोती के हार, अच्छे-अच्छे वस्त्र और एक सहस्र गौएँ भी ले लीं, काश्मीर-मण्डल में महात्मा रैक्व जहाँ रहते थे उस स्थान पर पहुँच कर राजा ने सारी वस्तुएँ उनके आगे निवेदन कर दीं और पृथ्वी पर पड़कर साष्टांग प्रणाम किया, महात्मा रैक्व अत्यन्त भक्ति के साथ चरणों में पड़े हुए राजा जानश्रुति पर कुपित हो उठे और बोलेः "रे शूद्र ! तू दुष्ट राजा है, क्या तू मेरा वृत्तान्त नहीं जानता? यह खच्चरियों से जुती हुई अपनी ऊँची गाड़ी ले जा, ये वस्त्र, ये मोतियों के हार और ये दूध देने वाली गौएँ भी स्वयं ही ले जा," इस तरह आज्ञा देकर रैक्व ने राजा के मन में भय उत्पन्न कर दिया, तब राजा ने शाप के भय से महात्मा रैक्व के दोनों चरण पकड़ लिए और भक्ति-पूर्वक कहाः "ब्राह्मण ! मुझ पर प्रसन्न होइये, भगवन ! आपमें यह अदभत माहात्म्य कैसे आया? प्रसन्न होकर मुझे ठीक-ठीक बताइये।"<br />
<br />
रैक्व ने कहाः राजन ! मैं प्रतिदिन गीता के छठे अध्याय का जप करता हूँ, इसी से मेरी तेजोराशि देवताओं के लिए भी दुःसह है,तदनन्तर परम बुद्धिमान राजा जानश्रुति ने यत्नपूर्वक महात्मा रैक्व से गीता के छठे अध्याय का अभ्यास किया, इससे उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई, रैक्व पूर्ववत् मोक्ष-दायक गीता के छठे अध्याय का जप जारी रखते हुए भगवान मणिकेश्वर के समीप आनन्द मग्न हो रहने लगे, हंस का रूप धारण करके वरदान देने के लिए आये हुए देवता भी विस्मित होकर स्वेच्छानुसार चले गये, जो मनुष्य सदा इस एक ही अध्याय का जप करता है, वह भी भगवान विष्णु के स्वरूप को प्राप्त होता है – इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-33401150480147070442010-06-20T08:33:00.001+05:302013-01-15T11:17:01.117+05:30अध्याय छह - ध्यान-योग<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIoVl7NtPSCyGVgKb271ayK3rfqaehs82kws0OpIWz0XdzEKHYCFoCfIDXZ1kq-ObOm-p6-5V-aVcr5eSU7bic8g7jA6DnnI88G-sL3Nyyxs15RpeZd4hxYdMyHcMR4zBsO9iUyKyzZDNQ/s1600/Gita+(6).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIoVl7NtPSCyGVgKb271ayK3rfqaehs82kws0OpIWz0XdzEKHYCFoCfIDXZ1kq-ObOm-p6-5V-aVcr5eSU7bic8g7jA6DnnI88G-sL3Nyyxs15RpeZd4hxYdMyHcMR4zBsO9iUyKyzZDNQ/s640/Gita+(6).jpg" width="640" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (योग में स्थित मनुष्य के लक्षण) </b></span><b><br />
</b><br />
श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;"> अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।<br />
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥ (१) </span> </div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - जो मनुष्य बिना किसी फ़ल की इच्छा से अपना कर्तव्य समझ कर कार्य करता है, वही संन्यासी है और वही योगी है, न तो अग्नि को त्यागने वाला ही सन्यासी होता है, और न ही कार्यों को त्यागने वाला ही योगी होता है। (१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;"> यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।<br />
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥ (२) </span> </div><br />
भावार्थ : हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं, उसे ही तू योग <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(परब्रह्म से मिलन कराने वाला) </span></b>समझ, क्योंकि इन्द्रिय-सुख <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;"><b>(शरीर के सुख)</b></span> की इच्छा का त्याग किये बिना कभी भी कोई मनुष्य योग<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(परमात्मा) </span></b>को प्राप्त नहीं हो सकता है। (२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।<br />
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ (३) </span> </div><br />
भावार्थ : मन को वश में करने की इच्छा वाले मनुष्य को योग की प्राप्ति के लिये कर्म करना कारण होता है, और योग को प्राप्त होते-होते सभी सांसारिक इच्छाओं का अभाव हो जाना ही कारण होता है। (३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।<br />
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥ (४) </span> </div><br />
भावार्थ : जब मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके, न तो शारीरिक सुख के लिये कार्य करता है, और न ही फ़ल की इच्छा से कार्य में प्रवृत होता है, उस समय वह मनुष्य योग मे स्थित कहलाता है। (४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।<br />
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ (५) </span> </div><br />
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये कि वह अपने मन के द्वारा अपना जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन से उद्धार करने का प्रयत्न करे, और अपने को निम्न-योनि में न गिरने दे, क्योंकि यह मन ही जीवात्मा का मित्र है, और यही जीवात्मा का शत्रु भी है। (५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।<br />
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥ (६) </span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका वह मन ही परम-मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही परम-शत्रु के समान होता है। (६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।<br />
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥ (७) </span> </div><br />
भावार्थ : जिसने मन को वश में कर लिया है, उसको परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा पूर्ण-रूप से प्राप्त हो जाता है, उस मनुष्य के लिये सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान एक समान होते है। (७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।<br />
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥ (८) </span> </div><br />
भावार्थ : ऎसा मनुष्य स्थिर चित्त वाला और इन्द्रियों को वश में करके, परमात्मा के ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त करके, पूर्ण सन्तुष्ट रहता है, ऎसे परमात्मा को प्राप्त हुए मनुष्य के लिये मिट्टी, पत्थर और सोना एक समान होते है। (८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।<br />
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ (९)</span> </div><br />
भावार्थ : ऎसा मनुष्य स्वभाव से सभी का हित चाहने वाला, मित्रों और शत्रुओं में, तटस्थों और मध्यस्थों में, शुभ-चिन्तकों और ईर्ष्यालुओं में, पुण्यात्माओं और पापात्माओं में भी एक समान भाव रखने वाला होता है। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।<br />
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ (१०)</span> </div><br />
भावार्थ : ऎसा मनुष्य निरन्तर मन सहित शरीर से किसी भी वस्तु के प्रति आकर्षित हुए बिना तथा किसी भी वस्तु का संग्रह किये बिना परमात्मा के ध्यान में एक ही भाव से स्थित रहने वाला होता है। (१०)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (योग में स्थित होने की विधि और लक्षण) </b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।<br />
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ (११)<br />
<br />
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।<br />
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ (१२)</span> </div><br />
भावार्थ : योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को एकान्त स्थान में पवित्र भूमि में न तो बहुत ऊँचा और न ही बहुत नीचा, कुशा के आसन पर मुलायम वस्त्र या मृगछाला बिछाकर, उस पर दृड़ता-पूर्वक बैठकर, मन को एक बिन्दु पर स्थित करके, चित्त और इन्द्रिओं की क्रियाओं को वश में रखते हुए अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करना चाहिये। (११,१२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।<br />
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ (१३)<br />
<br />
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।<br />
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ (१४)</span> </div><br />
भावार्थ : योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को अचल और स्थिर रखकर, नासिका के आगे के सिरे पर दृष्टि स्थित करके, इधर-उधर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ, बिना किसी भय से, इन्द्रिय विषयों से मुक्त ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित, मन को भली-भाँति शांत करके, मुझे अपना लक्ष्य बनाकर और मेरे ही आश्रय होकर, अपने मन को मुझमें स्थिर करके, मनुष्य को अपने हृदय में मेरा ही चिन्तन करना चाहिये। (१३,१४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।<br />
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ (१५)</span> </div><br />
भावार्थ : इस प्रकार निरन्तर शरीर द्वारा अभ्यास करके, मन को परमात्मा स्वरूप में स्थिर करके, परम-शान्ति को प्राप्त हुआ योग में स्थित मनुष्य ही सभी सांसारिक बन्धन से मुक्त होकर मेरे परम-धाम को प्राप्त कर पाता है। (१५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।<br />
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ (१६)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित मनुष्य को न तो अधिक भोजन करना चाहिये और न ही कम भोजन करना चाहिये, न ही अधिक सोना चाहिये और न ही सदा जागते रहना चाहिये। (१६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।<br />
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ (१७)</span> </div><br />
भावार्थ : नियमित भोजन करने वाला, नियमित चलने वाला, नियमित जीवन निर्वाह के लिये कार्य करने वाला और नियमित सोने वाला योग में स्थित मनुष्य सभी सांसारिक कष्टों से मुक्त हो जाता है। (१७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।<br />
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ (१८)</span> </div><br />
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य का योग के अभ्यास द्वारा विशेष रूप से मन जब आत्मा में स्थित परमात्मा में ही विलीन हो जाता है, तब वह सभी प्रकार की सांसारिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, उस समय वह पूर्ण रूप से योग में स्थिर कहा जाता है। (१८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।<br />
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ (१९)</span> </div><br />
भावार्थ : उदाहरण के लिये जिस प्रकार बिना हवा वाले स्थान में दीपक की लौ बिना इधर-उधर हुए स्थिर रहती है, उसी प्रकार योग में स्थित मनुष्य का मन निरन्तर आत्मा में स्थित परमात्मा में स्थिर रहता है। (१९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।<br />
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ (२०)</span> </div><br />
भावार्थ : योग के अभ्यास द्वारा जिस अवस्था में सभी प्रकार की मानसिक गतिविधियाँ रुक जाती हैं, उस अवस्था (समाधि) में मनुष्य अपनी ही आत्मा में परमात्मा को साक्षात्कार करके अपनी ही आत्मा में ही पूर्ण सन्तुष्ट रहता है। (२०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।<br />
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ (२१)</span> </div><br />
भावार्थ : तब वह अपनी शुद्ध चेतना द्वारा प्राप्त करने योग्य परम-आनन्द को शरीर से अलग जानता है, और उस अवस्था में परमतत्व परमात्मा में स्थित वह योगी कभी भी विचलित नही होता है। (२१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।<br />
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ (२२)</span> </div><br />
भावार्थ : परमात्मा को प्राप्त करके वह योग में स्थित मनुष्य परम-आनन्द को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भरी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है। (२२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।<br />
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥ (२३)</span> </div><br />
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये कि दृड़-विश्वास के साथ योग का अभ्यास करते हुए सभी सांसारिक संसर्ग से उत्पन्न दुखों से बिना विचलित हुए है योग समाधि में स्थित रहकर कार्य करे। (२३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।<br />
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ (२४)</span> </div><br />
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये मन से उत्पन्न होने वाली सभी सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण-रूप से त्याग कर और मन द्वारा इन्द्रियों के समूह को सभी ओर से वश में करे। (२४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।<br />
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥ (२५)</span> </div><br />
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे। (२५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।<br />
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ (२६)</span> </div><br />
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे। (२६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।<br />
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥ (२७)</span> </div><br />
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य का मन जब परमात्मा में एक ही भाव में स्थिर रहता है और जिसकी रज-गुण से उत्पन्न होने वाली कामनायें भली प्रकार से शांत हो चुकी हैं, ऎसा योगी सभी पाप-कर्मों से मुक्त होकर परम-आनन्द को प्राप्त करता है। (२७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।<br />
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ (२८)</span> </div><br />
भावार्थ : इस प्रकार योग में स्थित मनुष्य निरन्तर योग अभ्यास द्वारा सभी प्रकार के पापों से मुक्त् होकर सुख-पूर्वक परब्रह्म से एक ही भाव में स्थिर रहकर दिव्य प्रेम स्वरूप परम-आनंद को प्राप्त करता है। (२८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।<br />
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ (२९)</span> </div><br />
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव से देखने वाला होता है। (२९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।<br />
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ (३०)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है। (३०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।<br />
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ (३१)</span> </div><br />
भावार्थ : योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणीयों के हृदय में मुझको स्थित देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव मुझमें ही स्थित रहता है (३१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।<br />
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ (३२)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान सभी प्राणीयों को देखता है, सभी प्राणीयों के सुख और दुःख को भी एक समान रूप से देखता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना चाहिये। (३२)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (योग द्वारा मन का निग्रह)</b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।<br />
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥ (३३)</span> </div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे मधुसूदन! यह योग की विधि जिसके द्वारा समत्व-भाव दृष्टि मिलती है जिसका कि आपके द्वारा वर्णन किया गया है, मन के चंचलता के कारण मैं इस स्थिति में स्वयं को अधिक समय तक स्थिर नही देखता हूँ। (३३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।<br />
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ (३४)</span> </div><br />
भावार्थ : हे कृष्ण! क्योंकि यह मन निश्चय ही बड़ा चंचल है, अन्य को मथ डालने वाला है और बड़ा ही हठी तथा बलवान है, मुझे इस मन को वश में करना, वायु को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन लगता है। (३४)<br />
<br />
<div align="center">श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।<br />
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ (३५)</span> </div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! इसमे कोई संशय नही है कि चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु इसे सभी सांसारिक कामनाओं को त्याग <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(वैराग्य)</span></b> और निरन्तर अभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है। (३५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।<br />
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ (३६)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस मनुष्य द्वारा मन को वश में नही किया गया है, ऐसे मनुष्य के लिये परमात्मा की प्राप्ति <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(योग)</span></b> असंभव है लेकिन मन को वश में करने वाले प्रयत्नशील मनुष्य के लिये परमात्मा की प्राप्ति <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(योग)</span></b> सहज होता है - ऎसा मेरा विचार है। (३६)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (योग-भ्रष्ट हुए मनुष्य की गति) </b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।<br />
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ (३७)</span> </div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! प्रारम्भ में श्रद्धा-पूर्वक योग में स्थिर रहने वाला किन्तु बाद में योग से विचलित मन वाला असफ़ल-योगी परम-सिद्धि को न प्राप्त करके किस लक्ष्य को प्राप्त करता है? (३७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।<br />
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ (३८)</span> </div><br />
भावार्थ : हे महाबाहु कृष्ण! परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग से विचलित हुआ जो कि न तो सांसारिक भोग को ही भोग पाया और न ही आपको प्राप्त कर सका, ऎसा मोह से ग्रसित मनुष्य क्या छिन्न-भिन्न बादल की तरह दोनों ओर से नष्ट तो नहीं हो जाता? (३८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।<br />
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ (३९)</span> </div><br />
भावार्थ : हे श्रीकृष्ण! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से केवल आप ही दूर कर सकते हैं क्योंकि आपके अतिरिक्त अन्य कोई इस संशय को दूर करने वाला मिलना संभव नहीं है। (३९)<br />
<br />
<div align="center">श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।<br />
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ (४०)</span> </div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे पृथापुत्र! उस असफ़ल योगी का न तो इस जन्म में और न अगले जन्म में ही विनाश होता है, क्योंकि हे प्रिय मित्र! परम-कल्याणकारी नियत-कर्म करने वाला कभी भी दुर्गति को प्राप्त नही होता है। (४०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।<br />
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ (४१)</span> </div><br />
भावार्थ : योग में असफ़ल हुआ मनुष्य स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें अनेकों वर्षों तक जिन इच्छाओं के कारण योग-भ्रष्ट हुआ था, उन इच्छाओं को भोग करके फिर सम्पन्न सदाचारी मनुष्यों के परिवार में जन्म लेता है। (४१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।<br />
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥ (४२)</span> </div><br />
भावार्थ : अथवा उत्तम लोकों में न जाकर स्थिर बुद्धि वाले विद्वान योगियों के परिवार में जन्म लेता है, किन्तु इस संसार में इस प्रकार का जन्म निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है। (४२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।<br />
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ (४३)</span> </div><br />
भावार्थ : हे कुरुनन्दन! ऎसा जन्म प्राप्त करके वहाँ उसे पूर्व-जन्म के योग-संस्कार पुन: प्राप्त हो जाते है और उन संस्कारों के प्रभाव से वह परमात्मा प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को प्राप्त करने के उद्देश्य फिर से प्रयत्न करता है। (४३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।<br />
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ (४४)</span> </div><br />
भावार्थ : पूर्व जन्म के अभ्यास के कारण वह निश्चित रूप से परमात्म-पथ की ओर स्वत: ही आकर्षित हो जाता है, ऎसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों का उल्लंघन करके योग में स्थित हो जाता है। (४४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।<br />
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम् ॥ (४५)</span> </div><br />
भावार्थ : ऎसा योगी समस्त पाप-कर्मों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों के कठिन अभ्यास से इस जन्म में प्रयत्न करते हुए परम-सिद्धि को प्राप्त करने के पश्चात् परम-गति को प्राप्त करता है। (४५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।<br />
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ (४६)</span> </div><br />
भावार्थ : तपस्वियों से योगी श्रेष्ठ है, शास्त्र-ज्ञानियों से भी योगी श्रेष्ठ माना जाता है और सकाम कर्म करने वालों की अपेक्षा भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिये हे अर्जुन! तू योगी बन। (४६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।<br />
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ (४७)</span> </div><br />
भावार्थ : सभी प्रकार के योगियों में से जो पूर्ण-श्रद्धा सहित, सम्पूर्ण रूप से मेरे आश्रित हुए अपने अन्त:करण से मुझको निरन्तर स्मरण <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(दिव्य प्रेमाभक्ति)</span></b> करता है, ऎसा योगी मेरे द्वारा परम-योगी माना जाता है। (४७)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;"> ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः॥</span><br />
इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्ररूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में ध्यान-योग नाम का छठा अध्याय संपूर्ण हुआ॥<br />
<br />
<span style="color: #006600;"><b> ॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥ </b></span> </div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-80649598824022709052010-06-10T05:02:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.158+05:30अध्याय सात का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong>भगवान शिव कहते हैं:- </strong> हे पार्वती ! अब मैं सातवें अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुनकर कानों में अमृत भर जाता है, पाटलिपुत्र नामक एक दुर्गम नगर है जिसका द्वार बहुत ही ऊँचा है, उस नगर में शंकुकर्ण नामक एक ब्राह्मण रहता था, उसने वैश्य वृत्ति का आश्रय लेकर बहुत धन कमाया किन्तु न तो कभी पितरों का तर्पण करता था और न ही देवताओं का पूजन करता था, वह धन के लालच से धनी लोगों को ही भोज दिया करता था।<br />
<br />
एक समय की बात है, उस ब्राह्मण ने अपना चौथा विवाह करने के लिए पुत्रों और बन्धुओं के साथ यात्रा की, मार्ग में आधी रात के समय जब वह सो रहा था, तब एक सर्प ने कहीं से आकर उसकी बाँह में काट लिया, उसके काटते ही ऐसी अवस्था हो गई कि मणि, मंत्र और औषधि आदि से भी उसके शरीर की रक्षा न हो सकी, तत्पश्चात कुछ ही क्षणों में उसके प्राण पखेरु उड़ गये और वह प्रेत बना, फिर बहुत समय के बाद वह प्रेत सर्प योनि में उत्पन्न हुआ, उसका मन धन की वासना में बँधा था, उसने पूर्व वृत्तान्त को स्मरण करके सोचा 'मैंने घर के बाहर करोड़ों की संख्या में अपना जो धन गाड़ रखा है उससे इन पुत्रों को वंचित करके स्वयं ही उसकी रक्षा करूँगा।'<br />
<br />
साँप की योनि से पीड़ित होकर पिता ने एक दिन स्वप्न में अपने पुत्रों के समक्ष आकर अपना मनोभाव बताया, तब उसके पुत्रों ने सवेरे उठकर बड़े विस्मय के साथ एक-दूसरे से स्वप्न की बातें कही, उनमें से मंझला पुत्र कुदाल हाथ में लिए घर से निकला और जहाँ उसके पिता सर्प योनि धारण करके रहते थे, उस स्थान पर गया, यद्यपि उसे धन के स्थान का ठीक-ठीक पता नहीं था तो भी उसने चिह्नों से उसका ठीक निश्चय कर लिया और लोभ बुद्धि से वहाँ पहुँचकर बिल को खोदना आरम्भ किया, तभी एक बड़ा भयानक साँप प्रकट हुआ और बोला, 'अरे मूर्ख! तू कौन है? किसलिए आया है? यह बिल क्यों खोद रहा है? किसने तुझे भेजा है?'<br />
<br />
<strong>पुत्र बोला:-</strong> "मैं आपका पुत्र हूँ, मेरा नाम शिव है, मैं रात्रि में देखे हुए स्वप्न से विस्मित होकर यहाँ का धन लेने के लिये आया हूँ।<br />
<br />
<strong>पिता बोला:-</strong> "यदि तू मेरा पुत्र है तो मुझे शीघ्र ही बन्धन से मुक्त कर, मैं अपने पूर्व-जन्म के गाड़े हुए धन के ही लिए सर्प-योनि में उत्पन्न हुआ हूँ।"<br />
<br />
<strong>पुत्र बोला:-</strong> "पिता जी! आपकी मुक्ति कैसे होगी? इसका उपाय मुझे बताईये, क्योंकि मैं इस रात में सब लोगों को छोड़कर आपके पास आया हूँ।" <br />
<br />
<strong>पिता बोला:-</strong> "बेटा! गीता के अमृत रूपी सप्तम अध्याय को छोड़कर मुझे मुक्त करने में तीर्थ, दान, तप और यज्ञ भी समर्थ नहीं हैं, केवल गीता का सातवाँ अध्याय ही प्राणियों के जरा मृत्यु आदि दुःखों को दूर करने वाला है, पुत्र! मेरे श्राद्ध के दिन गीता के सप्तम अध्याय का पाठ करने वाले ब्राह्मण को श्रद्धापूर्वक भोजन कराओ, इससे निःसन्देह मेरी मुक्ति हो जायेगी, वत्स! अपनी शक्ति के अनुसार पूर्ण श्रद्धा के साथ वेद-विद्या में प्रवीण अन्य ब्राह्मणों को भी भोजन कराना।"<br />
<br />
सर्प योनि में पड़े हुए पिता के ये वचन सुनकर सभी पुत्रों ने उसकी आज्ञानुसार तथा उससे भी अधिक किया, तब शंकुकर्ण ने अपने सर्प शरीर को त्यागकर दिव्य देह धारण किया और सारा धन पुत्रों के अधीन कर दिया, पिता ने करोड़ों की संख्या में जो धन उनमें बाँट दिया था, उससे वे पुत्र बहुत प्रसन्न हुए, उनकी बुद्धि धर्म में लगी हुई थी, इसलिए उन्होंने बावली, कुआँ, पोखरा, यज्ञ तथा देव मंदिर के लिए उस धन का उपयोग किया और धर्मशाला भी बनवायी, तत्पश्चात सातवें अध्याय का सदा जप करते हुए उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।<br />
<br />
<strong>श्री महादेवजी बोलेः-</strong>हे पार्वती! यह तुम्हें सातवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया, जिसके श्रवण मात्र से मानव सब पापों से मुक्त हो जाता है।<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-48413591210569202262010-06-01T05:04:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.131+05:30अध्याय सात - भगवद्ज्ञान-योग<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdLhD0sAGqGhcTUDzKyBn17g9EgTss1jYH0Cir485sWQHp96pnIt-AB1wfnBdieP3qBu2UVy7_a_YoTRm3LSJnEWwimnc3fVoqgvhAKLWHsnbbtPuaycYuhTtlcOG4jGy8uR-a8emB9Qd0/s1600/Gita+(7).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdLhD0sAGqGhcTUDzKyBn17g9EgTss1jYH0Cir485sWQHp96pnIt-AB1wfnBdieP3qBu2UVy7_a_YoTRm3LSJnEWwimnc3fVoqgvhAKLWHsnbbtPuaycYuhTtlcOG4jGy8uR-a8emB9Qd0/s640/Gita+(7).jpg" width="640" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(विज्ञान सहित तत्व-ज्ञान) </b></span><b><br />
</b><br />
श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।<br />
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ (१)</span></div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे पृथापुत्र! अब उसको सुन जिससे तू योग का अभ्यास करते हुए मुझमें अनन्य भाव से मन को स्थित करके और मेरी शरण होकर सम्पूर्णता से मुझको बिना किसी संशय के जान सकेगा। (१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।<br />
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ (२)</span> </div><br />
भावार्थ : अब मैं तेरे लिए उस परम-ज्ञान को अनुभव सहित कहूँगा, जिसको पूर्ण रूप से जानने के बाद भविष्य में इस संसार में तेरे लिये अन्य कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहेगा। (२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।<br />
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥ (३)</span> </div><br />
भावार्थ : हजारों मनुष्यों में से कोई एक मेरी प्राप्ति रूपी सिद्धि की इच्छा करता है और इस प्रकार सिद्धि की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले मनुष्यों में से भी कोई एक मुझको तत्व रूप से साक्षात्कार सहित जान पाता है। (३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।<br />
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥(४)</span> </div><br />
भावार्थ : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार - ऎसे यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो मेरी जड़ स्वरूप अपरा प्रकृति है। (४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।<br />
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ (५)</span> </div><br />
भावार्थ : हे महाबाहु अर्जुन! परन्तु इस जड़ स्वरूप अपरा प्रकृति <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(माया)</span></b> के अतिरिक्त अन्य चेतन दिव्य-स्वरूप परा प्रकृति <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(आत्मा)</span></b> को जानने का प्रयत्न कर, जिसके द्वारा जीव रूप से संसार का भोग किया जाता है। (५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।<br />
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ (६)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! तू मेरी इन जड़ तथा चेतन प्रकृतियों को ही सभी प्राणीयों के जन्म का कारण समझ, और मैं ही इस सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति तथा प्रलय का मूल कारण हूँ। (६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।<br />
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ (७)</span> </div><br />
भावार्थ : हे धनंजय! मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, जिस प्रकार माला में मोती धागे पर आश्रित रहते हैं उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत मणियों के समान मुझ पर ही आश्रित है। (७)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(प्रकृति में भगवान का प्रसार)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।<br />
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥ (८)</span> </div><br />
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, समस्त वैदिक मन्त्रो में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ और मनुष्यों द्वारा किया जाने वाला पुरुषार्थ भी मैं हूँ। (८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।<br />
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥ (९)</span> </div><br />
भावार्थ : मैं पृथ्वी में पवित्र गंध हूँ, अग्नि में उष्मा हूँ, समस्त प्राणीयों में वायु रूप में प्राण हूँ और तपस्वियों में तप भी मैं हूँ। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।<br />
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥ (१०)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! तू मुझको ही सभी प्राणीयों का अनादि-अनन्त बीज समझ, मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वी मनुष्यों का तेज हूँ। (१०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।<br />
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥ (११)</span> </div><br />
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! मैं बलवानों का कामना-रहित और आसक्ति-रहित बल हूँ, और सब प्राणीयों में धर्मानुसार<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(शास्त्रानुसार)</span></b> विषयी जीवन हूँ। (११)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।<br />
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥ (१२)</span> </div><br />
भावार्थ : प्रकृति के तीन गुण - सत्त्व-गुण, रज-गुण और तम-गुण से उत्पन्न होने वाले भाव उन सबको तू मुझसे उत्पन्न होने वाले समझ, परन्तु प्रकृति के गुण मेरे अधीन रहते है, मैं उनके अधीन नही हूँ। (१२)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(भक्त और अभक्त का निरुपण)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।<br />
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥ (१३)</span> </div><br />
भावार्थ : प्रकृति के इन तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं। (१३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।<br />
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ (१४)</span> </div><br />
भावार्थ : यह तीनों दिव्य गुणों से युक्त मेरी अपरा शक्ति स्वरुप माया को पार कर पाना असंभव है, परन्तु जो मनुष्य मेरे शरणागत हो जाते हैं, वह मेरी इस माया को आसानी से पार कर जाते हैं। (१४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।<br />
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥ (१५)</span> </div><br />
भावार्थ : मनुष्यों में अधर्मी और दुष्ट स्वभाव वाले मूर्ख लोग मेरी शरण ग्रहण नहीं करते है, ऐसे नास्तिक-स्वभाव धारण करने वालों का ज्ञान मेरी माया द्वारा हर लिया जाता है। (१५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।<br />
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ (१६)</span> </div><br />
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! चार प्रकार के उत्तम कर्म करने वाले (१) <b>आर्त </b>- दुख से निवृत्ति चाहने वाले, (२) <b>अर्थार्थी</b> - धन-सम्पदा चाहने वाले (३) <b>जिज्ञासु</b> - केवल मुझे जानने की इच्छा वाले और (४) <b>ज्ञानी</b> - मुझे ज्ञान सहित जानने वाले, भक्त मेरा स्मरण करते हैं। (१६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।<br />
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ (१७)</span> </div><br />
भावार्थ : इनमें से वह ज्ञानी सर्वश्रेष्ठ है जो सदैव अनन्य भाव से मेरी शुद्ध-भक्ति में स्थित रहता है क्योंकि ऎसे ज्ञानी भक्त को मैं अत्यन्त प्रिय होता हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय होता है। (१७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।<br />
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥ (१८)</span> </div><br />
भावार्थ : यधपि ये चारों प्रकार के भक्त उदार हृदय वाले हैं, परन्तु मेरे मत के अनुसार ज्ञानी-भक्त तो साक्षात् मेरा ही स्वरूप होता है, क्योंकि वह स्थिर मन-बुद्धि वाला ज्ञानी-भक्त मुझे अपना सर्वोच्च लक्ष्य जानकर मुझमें ही स्थित रहता है। (१८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।<br />
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ (१९)</span> </div><br />
भावार्थ : अनेकों जन्मों के बाद अपने अन्तिम जन्म में ज्ञानी मेरी शरण ग्रहण करता है उसके लिये सभी के हृदय में स्थित सब कुछ मैं ही होता हूँ, ऎसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है। (१९)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(देवताओं को पूजने वालों का निरुपण)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।<br />
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ (२०)</span> </div><br />
भावार्थ : जिन मनुष्यों का ज्ञान सांसारिक कामनाओं के द्वारा नष्ट हो चुका है, वे लोग अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूर्व जन्मों के अर्जित संस्कारों के कारण प्रकृति के नियमों के वश में होकर अन्य देवी-देवताओं की शरण में जाते हैं। (२०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।<br />
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥ (२१)</span> </div><br />
भावार्थ : जैसे ही कोई भक्त जिन देवी-देवताओं के स्वरूप को श्रद्धा से पूजने की इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को उन्ही देवी-देवताओं के प्रति स्थिर कर देता हूँ। (२१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।<br />
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥ (२२)</span> </div><br />
भावार्थ : वह भक्त सांसारिक सुख की कामनाओं से श्रद्धा से युक्त होकर उन देवी-देवताओं की पूजा-आराधना करता है और उसकी वह कामनायें पूर्ण भी होती है, किन्तु वास्तव में यह सभी इच्छाऎं मेरे द्वारा ही पूरी की जाती हैं। (२२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।<br />
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ (२३)</span> </div><br />
भावार्थ : परन्तु उन अल्प-बुद्धि वालों को प्राप्त वह फल क्षणिक होता है और भोगने के बाद समाप्त हो जाता हैं, देवताओं को पूजने वाले देवलोक को प्राप्त होते हैं किन्तु मेरे भक्त अन्तत: मेरे परम-धाम को ही प्राप्त होते हैं। (२३)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(अल्प-ज्ञानी और पूर्ण-ज्ञानी मनुष्य के लक्षण)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।<br />
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥ (२४)</span> </div><br />
भावार्थ : बुद्धिहीन मनुष्य मुझ अप्रकट परमात्मा को मनुष्य की तरह जन्म लेने वाला समझते हैं इसलिय वह मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी स्वरूप के परम-प्रभाव को नही समझ पाते हैं। (२४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।<br />
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥ (२५)</span> </div><br />
भावार्थ : मैं सभी के लिये प्रकट नही हूँ क्योंकि में अपनी अन्तरंगा शक्ति योग-माया द्वारा आच्छादित रहता हूँ, इसलिए यह मूर्ख मनुष्य मुझ अजन्मा, अविनाशी परमात्मा को नहीं समझ पाते है। (२५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।<br />
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ (२६)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! मैं भूतकाल में, वर्तमान में और भविष्य में जन्म-मृत्यु को प्राप्त होने वाले सभी प्राणीयों को जानता हूँ, परन्तु मुझे कोई नही जानता है। (२६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।<br />
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥ (२७)</span> </div><br />
भावार्थ : हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! संसार में सभी प्राणी इच्छा-द्वेष आदि द्वन्दों से उत्पन्न मोह के कारण जन्म लेकर पुन: मोह को प्राप्त होते हैं। (२७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।<br />
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥ (२८)</span> </div><br />
भावार्थ : परन्तु जिस मनुष्य ने पूर्व-जन्मों में और इस जन्म में पुण्य-कर्म किये हैं तथा उसके सभी पाप पूर्ण-रूप से नष्ट हो चुके हैं, वह दृढ-संकल्प के साथ मेरी भक्ति करके मोह आदि सभी द्वन्दों से मुक्त हो जाता हैं। (२८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।<br />
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥ (२९)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य मेरी शरण होकर वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्ति पाने की इच्छा करता है, ऎसे मनुष्य उस ब्रह्म को, परमात्मा को और उसके सभी कर्मों को पूरी तरह से जानता हैं। (२९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।<br />
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥ (३०)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य मुझे अधिभूत <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सम्पूर्ण जगत का कर्ता)</span></b>, अधिदैव <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सम्पूर्ण देवताओं का नियन्त्रक)</span></b> तथा अधियज्ञ <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सम्पूर्ण फ़लों का भोक्ता) </span></b>सहित जानता हैं और जिसका मन निरन्तर मुझमें स्थित रहता है वह मनुष्य मृत्यु के समय में भी मुझे जानता है। (३०)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भगवद्ज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ </span><br />
इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद् भगवदगीता में श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के संवाद में भगवद्ज्ञान-योग नाम का सातवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥<br />
<br />
<span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span> </div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-36839243019344221952010-05-30T19:11:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.126+05:30अध्याय आठ का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong>भगवान शिव कहते हैं:-</strong> हे देवी ! अब आठवें अध्याय का माहात्म्य सुनो, उसके सुनने से तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी, लक्ष्मीजी के पूछने पर भगवान विष्णु ने उन्हें इस प्रकार आठवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया था।<br />
<br />
<strong>श्री भगवान बोलेः-</strong> दक्षिण में आमर्दकपुर नामक एक प्रसिद्ध नगर है, वहाँ भाव शर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था, जिसने वेश्या को पत्नी बना कर रखा था, वह मांस खाता था, मदिरा पीता, श्रेष्ठ पुरुषों का धन चुराता, परायी स्त्री से व्यभिचार करता और शिकार खेलने में दिलचस्पी रखता था, वह बड़े भयानक स्वभाव का था और और मन में बड़े-बड़े हौंसले रखता था, एक दिन मदिरा पीने वालों का समाज जुटा था, उसमें भाव शर्मा ने भर पेट ताड़ी पी, खूब गले तक उसे चढ़ाया, अतः अजीर्ण से अत्यन्त पीड़ित होकर वह पापात्मा काल-वश मर गया और बहुत बड़ा ताड़ का वृक्ष हुआ। <br />
<br />
उसकी घनी और ठंडी छाया का आश्रय लेकर ब्रह्म-राक्षस भाव को प्राप्त हुए कोई पति-पत्नी वहाँ रहा करते थे, उनके पूर्व जन्म की घटना इस प्रकार है, एक कुशीबल नामक ब्राह्मण था, जो वेद-वेदांग के तत्त्वों का ज्ञाता, सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थ का विशेषज्ञ और सदाचारी था, उसकी स्त्री का नाम कुमति था, वह बड़े खोटे विचार की थी, वह ब्राह्मण विद्वान होने पर भी अत्यन्त लोभ-वश अपनी स्त्री के साथ प्रतिदिन भैंस, काल-पुरुष और घोड़े आदि दानों को ग्रहण किया करता था, परन्तु दूसरे ब्राह्मणों को दान में मिली हुई कौड़ी भी नहीं देता था, वे ही दोनों पति-पत्नी काल-वश मृत्यु को प्राप्त होकर ब्रह्म-राक्षस हुए, वे भूख और प्यास से पीड़ित हो इस पृथ्वी पर घूमते हुए उसी ताड वृक्ष के पास आये और उसके मूल भाग में विश्राम करने लगे।<br />
<br />
<strong>पत्नी ने पति से पूछाः-</strong> 'नाथ! हम लोगों का यह महान दुःख कैसे दूर होगा? ब्रह्म-राक्षस-योनि से किस प्रकार हम दोनों की मुक्ति होगी? <br />
<br />
<strong>ब्राह्मण ने कहाः-</strong> "ब्रह्मविद्या के उपदेश, आध्यात्म तत्व के विचार और कर्म विधि के ज्ञान बिना किस प्रकार संकट से छुटकारा मिल सकता है?<br />
<br />
<strong>पत्नी ने पूछाः-</strong> "किं तद् ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम" (पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है और कर्म कौन सा है?) उसकी पत्नी इतना कहते ही जो आश्चर्य की घटना घटित हुई, उसको सुनो, उपर्युक्त वाक्य गीता के आठवें अध्याय का आधा श्लोक था, उसके श्रवण से वह वृक्ष उस समय ताड के रूप को त्यागकर भाव शर्मा नामक ब्राह्मण हो गया, तत्काल ज्ञान होने से विशुद्ध-चित्त होकर वह पाप के चोले से मुक्त हो गया तथा उस आधे श्लोक के ही माहात्म्य से वे पति-पत्नी भी मुक्त हो गये, उनके मुख से दैवात् ही आठवें अध्याय का आधा श्लोक निकल पड़ा था। <br />
<br />
तदनन्तर आकाश से एक दिव्य विमान आया और वे दोनों पति-पत्नी उस विमान पर आरूढ़ होकर स्वर्गलोक को चले गये, वहाँ का यह सारा वृत्तान्त अत्यन्त आश्चर्यजनक था, उसके बाद उस बुद्धिमान ब्राह्मण भाव शर्मा ने आदर-पूर्वक उस आधे श्लोक को लिखा और भगवान जनार्दन की आराधना करने की इच्छा से वह मुक्ति दायिनी काशीपुरी में चला गया, वहाँ उस उदार बुद्धिवाले ब्राह्मण ने भारी तपस्या आरम्भ की, उसी समय क्षीरसागर की कन्या भगवती लक्ष्मी ने हाथ जोड़कर देवताओं के भी देवता जगत्पति जनार्दन से पूछाः "हे नाथ ! आप सहसा नींद त्याग कर खड़े क्यों हो गये?"<br />
<br />
<strong>श्री भगवान बोलेः-</strong> हे देवी! काशीपुरी में भागीरथी के तट पर बुद्धिमान ब्राह्मण भाव शर्मा मेरे भक्ति-रस से परिपूर्ण होकर अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा है, वह अपनी इन्द्रियों के वश में करके गीता के आठवें अध्याय के आधे श्लोक का जप करता है, मैं उसकी तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ, बहुत देर से उसकी तपस्या के अनुरूप फल का विचार का रहा था, प्रिये ! इस समय वह फल देने को मैं उत्कण्ठति हूँ।<br />
<br />
<strong>पार्वती जी ने पूछाः-</strong> भगवन! श्रीहरि सदा प्रसन्न होने पर भी जिसके लिए चिन्तित हो उठे थे, उस भगवद् भक्त भाव शर्मा ने कौन-सा फल प्राप्त किया?<br />
<br />
<strong>श्री महादेवजी बोलेः-</strong> हे देवी! द्विजश्रेष्ठ भाव शर्मा प्रसन्न हुए भगवान विष्णु के प्रसाद को पाकर आत्यन्तिक सुख (मोक्ष) को प्राप्त हुआ तथा उसके अन्य वंशज भी, जो नरक यातना में पड़े थे, उसी के शुद्ध कर्म से भगवद्धाम को प्राप्त हुए, पार्वती! यह आठवें अध्याय का माहात्म्य थोड़े में ही तुम्हे बताया है, इस पर सदा विचार करना चाहिए।<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-35014364761819912292010-05-20T19:21:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.120+05:30अध्याय आठ - अक्षरब्रह्म-योग<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjg0QUGqtUP8BM-_udO59qciFwAdcHNqhyphenhyphenx7pGFIE0rFlf0karn3XNj9N9GHm0f-A1UcVzYLRQVToJ4r2FgIb2CFTAoAhSvG8dpw5amV_et2Xl8-eeJQOLmDpHvNv44lxZE7wHYdxfSEJdM/s1600/Gita+(8).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjg0QUGqtUP8BM-_udO59qciFwAdcHNqhyphenhyphenx7pGFIE0rFlf0karn3XNj9N9GHm0f-A1UcVzYLRQVToJ4r2FgIb2CFTAoAhSvG8dpw5amV_et2Xl8-eeJQOLmDpHvNv44lxZE7wHYdxfSEJdM/s640/Gita+(8).jpg" width="640" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(अर्जुन के सात प्रश्नो के उत्तर)</b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।<br />
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ (१)</span></div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने पूछा - हे पुरुषोत्तम! यह<b> "ब्रह्म"</b> क्या है? <b>"अध्यात्म"</b> क्या है? <b>"कर्म"</b> क्या है? <b>"अधिभूत"</b> किसे कहते हैं? और <b>"अधिदैव"</b> कौन कहलाते हैं? (१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।<br />
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥ (२)</span></div><br />
भावार्थ : हे मधुसूदन! यहाँ<b> "अधियज्ञ" </b>कौन है? और वह इस शरीर में किस प्रकार स्थित रहता है? और शरीर के अन्त समय में आत्म-संयमी<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(योग-युक्त)</span></b> मनुष्यों द्वारा आपको किस प्रकार जाना जाता हैं? (२)<br />
<br />
<div align="center">श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।<br />
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥ (३)</span> </div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - जो अविनाशी है वही <b>"ब्रह्म"</b> <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(आत्मा)</span></b> दिव्य है और आत्मा में स्थिर भाव ही <b>"अध्यात्म"</b> कहलाता है तथा जीवों के वह भाव जो कि अच्छे या बुरे संकल्प उत्पन्न करते है उन भावों का मिट जाना ही "कर्म" कहलाता है। (३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।<br />
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥ (४)</span> </div><br />
भावार्थ : हे शरीर धारियों मे श्रेष्ठ अर्जुन! मेरी अपरा प्रकृति जो कि निरन्तर परिवर्तनशील है अधिभूत कहलाती हैं, तथा मेरा वह विराट रूप जिसमें सूर्य, चन्द्रमा आदि सभी देवता स्थित है वह अधिदैव कहलाता है और मैं ही प्रत्येक शरीरधारी के हृदय में अन्तर्यामी रूप स्थित अधियज्ञ <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(यज्ञ का भोक्ता)</span></b> हूँ। (४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।<br />
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ (५)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य जीवन के अंत समय में मेरा ही स्मरण करता हुआ शारीरिक बन्धन से मुक्त होता है, वह मेरे ही भाव को अर्थात मुझको ही प्राप्त होता है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। (५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।<br />
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ (६)</span> </div><br />
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य अंत समय में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उसी भाव को ही प्राप्त होता है, जिस भाव का जीवन में निरन्तर स्मरण किया है। (६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।<br />
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥ (७)</span> </div><br />
भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! तू हर समय मेरा ही स्मरण कर और युद्ध भी कर, मन-बुद्धि से मेरे शरणागत होकर तू निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा। (७)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।<br />
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥ (८)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! जो मनुष्य बिना विचलित हुए अपनी चेतना<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(आत्मा) </span></b>से योग में स्थित होने का अभ्यास करता है, वह निरन्तर चिन्तन करता हुआ उस दिव्य परमात्मा को ही प्राप्त होता है। (८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।<br />
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥ (९)</span> </div><br />
भावार्थ : मनुष्य को उस परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करना चाहिये जो कि सभी को जानने वाला है, पुरातन है, जगत का नियन्ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है, सभी का पालनकर्ता है, अकल्पनीय-स्वरूप है, सूर्य के समान प्रकाशमान है और अन्धकार से परे स्थित है। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।<br />
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ (१०)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भक्ति मे लगा हुआ, योग-शक्ति के द्वारा प्राण को दोनों भौंहौं के मध्य में पूर्ण रूप से स्थापित कर लेता है, वह निश्चित रूप से परमात्मा के उस परम-धाम को ही प्राप्त होता है। (१०)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(सन्यास-योग और भक्ति-योग से परमात्मा की प्राप्ति)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।<br />
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ (११)</span> </div><br />
भावार्थ : वेदों के ज्ञाता जिसे अविनाशी कहते है तथा बडे़-बडे़ मुनि-सन्यासी जिसमें प्रवेश पाते है, उस परम-पद को पाने की इच्छा से जो मनुष्य ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हैं, उस विधि को तुझे संक्षेप में बतलाता हूँ। (११)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।<br />
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥ (१२)</span> </div><br />
भावार्थ : शरीर के सभी द्वारों को वश में करके तथा मन को हृदय में स्थित करके, प्राणवायु को सिर में रोक करके योग-धारणा में स्थित हुआ जाता है। (१२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।<br />
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥ (१३)</span> </div><br />
भावार्थ : इस प्रकार ॐकार रूपी एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करके मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मनुष्य मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है। (१३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।<br />
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ॥ (१४)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! जो मनुष्य मेरे अतिरिक्त अन्य किसी का मन से चिन्तन नहीं करता है और सदैव नियमित रूप से मेरा ही स्मरण करता है, उस नियमित रूप से मेरी भक्ति में स्थित भक्त के लिए मैं सरलता से प्राप्त हो जाता हूँ। (१४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।<br />
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ (१५)</span> </div><br />
भावार्थ : मुझे प्राप्त करके उस मनुष्य का इस दुख-रूपी अस्तित्व-रहित क्षणभंगुर संसार में पुनर्जन्म कभी नही होता है, बल्कि वह महात्मा परम-सिद्धि को प्राप्त करके मेरे परम-धाम को प्राप्त होता है। (१५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।<br />
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ (१६)</span> </div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! इस ब्रह्माण्ड में निम्न-लोक से ब्रह्म-लोक तक के सभी लोकों में सभी जीव जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रह्ते हैं, किन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मुझे प्राप्त करके मनुष्य का पुनर्जन्म कभी नहीं होता है। (१६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।<br />
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ (१७)</span> </div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य एक हजार चतुर्युगों का ब्रह्मा का दिन और एक हजार चतुर्युगों की ब्रह्मा की रात्रि को जानते है वह मनुष्य समय के तत्व को वास्तविकता से जानने वाले होते हैं। (१७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।<br />
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥ (१८)</span> </div><br />
भावार्थ : ब्रह्मा के दिन की शुरूआत में सभी जीव उस अव्यक्त से प्रकट होते है और रात्रि की शुरूआत में पुन: अव्यक्त में ही विलीन हो जाते हैं, उस अव्यक्त को ही ब्रह्म के नाम से जाना जाता है। (१८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।<br />
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥ (१९)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! वही यह समस्त जीवों का समूह बार-बार उत्पन्न और विलीन होता रहता है, ब्रह्मा की रात्रि के आने पर विलीन हो जाता है और दिन के आने पर स्वत: ही प्रकट हो जाता है। (१९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।<br />
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥ (२०)</span> </div><br />
भावार्थ : लेकिन उस अव्यक्त ब्रह्म के अतिरिक्त शाश्वत<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(अनादि-अनन्त)</span></b> परम-अव्यक्त परब्रह्म है, वह परब्रह्म सभी जीवों के नाश होने पर भी कभी नष्ट नहीं होता है। (२०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।<br />
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ (२१)</span> </div><br />
भावार्थ : जिसे वेदों में अव्यक्त अविनाशी के नाम से कहा गया है, उसी को परम-गति कहा जाता हैं जिसको प्राप्त करके मनुष्य कभी वापस नहीं आता है, वही मेरा परम-धाम है। (२१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।<br />
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥ (२२)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! वह ब्रह्म जो परम-श्रेष्ठ है जिसे अनन्य-भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, जिसके अन्दर सभी जीव स्थित हैं और जिसके कारण सारा जगत दिखाई देता है। (२२)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(प्रकाश-मार्ग और अन्धकार-मार्ग का निरूपण)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।<br />
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ (२३)</span> </div><br />
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! जिस समय में शरीर को त्यागकर जाने वाले योगीयों का पुनर्जन्म नही होता हैं और जिस समय में शरीर त्यागने पर पुनर्जन्म होता हैं, उस समय के बारे में बतलाता हूँ। (२३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।<br />
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ (२४)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस समय ज्योतिर्मय अग्नि जल रही हो, दिन का पूर्ण सूर्य-प्रकाश हो, शुक्ल-पक्ष का चन्द्रमा बढ़ रहा हो और जब सूर्य उत्तर-दिशा में रहता है उन छः महीनों के समय में शरीर का त्याग करने वाले ब्रह्मज्ञानी मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। (२४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम् ।<br />
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥ (२५)</span> </div><br />
भावार्थ : जिस समय अग्नि से धुआँ फ़ैल रहा हो, रात्रि का अन्धकार हो, कृष्ण-पक्ष का चन्द्रमा घट रहा हो और जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है उन छः महीनों के समय में शरीर त्यागने वाला स्वर्ग-लोकों को प्राप्त होकर अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर पुनर्जन्म को प्राप्त होता है। (२५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।<br />
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ॥ (२६)</span> </div><br />
भावार्थ : वेदों के अनुसार इस मृत्यु-लोक से जाने के दो ही शाश्वत मार्ग है -<b> एक प्रकाश का मार्ग</b> और <b>दूसरा अंधकार का मार्ग</b>, जो मनुष्य प्रकाश मार्ग से जाता है वह वापस नहीं आता है, और जो मनुष्य अंधकार मार्ग से जाता है वह वापस लौट आता है। (२६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।<br />
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥ (२७)</span> </div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! भक्ति में स्थित मेरा कोई भी भक्त इन सभी मार्गों को जानते हुए भी कभी मोहग्रस्त नहीं होता है, इसलिये हे अर्जुन! तू हर समय मेरी भक्ति में स्थिर हो। (२७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">वेदेषु यज्ञेषु तपः सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।<br />
अत्येत तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥ (२८)</span> </div><br />
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य वेदों के अध्यन से, यज्ञ से, तप से और दान से प्राप्त सभी पुण्य-फलों को भोगता हुआ अन्त में निश्चित रूप से तत्व से जानकर मेरे परम-धाम को ही प्राप्त करता है, जो कि मेरा मूल निवास स्थान है। (२८)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ॐ तत्सदिति श्री मद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे अक्षर ब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः ॥</span><br />
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'अक्षरब्रह्म-योग' नाम का आठवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ |<br />
<br />
<span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span> </div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-5091138637802523612010-05-10T06:36:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.135+05:30अध्याय नौ का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong>भगवान शिव कहते हैं:-</strong> पार्वती अब मैं आदरपूर्वक नौवें अध्याय के माहात्म्य का वर्णन करुँगा, तुम स्थिर होकर सुनो। <br />
<br />
नर्मदा के तट पर माहिष्मती नाम की एक नगरी है, वहाँ माधव नाम के एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेद-वेदांगों के तत्वज्ञ और समय-समय पर आने वाले अतिथियों के प्रेमी थे, उन्होंने विद्या के द्वारा बहुत धन कमाकर एक महान यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया, उस यज्ञ में बलि देने के लिए एक बकरा मंगाया गया, जब उसके शरीर की पूजा हो गयी, तब सबको आश्चर्य में डालते हुए उस बकरे ने हँसकर उच्च स्वर से कहाः "ब्राह्मण! इन बहुत से यज्ञों द्वारा क्या लाभ है? इनका फल तो नष्ट हो जाने वाला तथा ये जन्म, जरा और मृत्यु के भी कारण हैं, यह सब करने पर भी मेरी जो वर्तमान दशा है इसे देख लो," बकरे के इस अत्यन्त कौतूहल जनक वचन को सुनकर यज्ञ मण्डप में रहने वाले सभी लोग बहुत ही विस्मित हुए, तब वे यजमान ब्राह्मण हाथ जोड़ अपलक नेत्रों से देखते हुए बकरे को प्रणाम करके आदर के साथ पूछने लगे।<br />
<br />
<strong>ब्राह्मण बोलेः-</strong> आप किस जाति के थे? आपका स्वभाव और आचरण कैसा था? तथा जिस कर्म से आपको बकरे की योनि प्राप्त हुई? यह सब मुझे बताइये।<br />
<br />
<strong>बकरा बोलाः-</strong> ब्राह्मण ! मैं पूर्व जन्म में ब्राह्मणों के अत्यन्त निर्मल कुल में उत्पन्न हुआ था, समस्त यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला और वेद-विद्या में प्रवीण था, एक दिन मेरी स्त्री ने भगवती दुर्गा की भक्ति से विनम्र होकर अपने बालक के रोग की शान्ति के लिए बलि देने के निमित्त मुझसे एक बकरा माँगा, तत्पश्चात् जब चण्डिका के मन्दिर में वह बकरा मारा जाने लगा, उस समय उसकी माता ने मुझे शाप दियाः "ओ ब्राह्मणों में नीच, पापी! तू मेरे बच्चे का वध करना चाहता है, इसलिए तू भी बकरे की योनि में जन्म लेगा।" <br />
<br />
द्विजश्रेष्ठ! तब कालवश मृत्यु को प्राप्त होकर मैं बकरा हुआ, यद्यपि मैं पशु योनि में पड़ा हूँ, तो भी मुझे अपने पूर्व-जन्मों का स्मरण बना हुआ है, ब्राह्मण! यदि आपको सुनने की उत्कण्ठा हो तो मैं एक और भी आश्चर्य की बात बताता हूँ, कुरुक्षेत्र नामक एक नगर है, जो मोक्ष प्रदान करने वाला है, वहाँ चन्द्र शर्मा नामक एक सूर्य-वंशी राजा राज्य करते थे, एक समय जब सूर्य-ग्रहण लगा था। <br />
<br />
राजा ने बड़ी श्रद्धा के साथ कालपुरुष का दान करने की तैयारी की, उन्होंने वेद-वेदांगो के पारगामी एक विद्वान ब्राह्मण को बुलवाया और पुरोहित के साथ वे तीर्थ के पावन जल से स्नान करने को चले और दो वस्त्र धारण किये, फिर पवित्र और प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने श्वेत चन्दन लगाया और बगल में खड़े हुए पुरोहित का हाथ पकड़कर मनुष्यों से घिरे हुए अपने स्थान पर लौट आये। आने पर राजा ने यथोचित्त विधि से भक्ति-पूर्वक ब्राह्मण को काल-पुरुष का दान किया।<br />
<br />
तब काल-पुरुष का हृदय चीरकर उसमें से एक पापात्मा चाण्डाल प्रकट हुआ फिर थोड़ी देर के बाद निन्दा भी चाण्डाली का रूप धारण करके काल-पुरुष के शरीर से निकली और ब्राह्मण के पास आ गयी, इस प्रकार चाण्डालों की वह जोड़ी आँखें लाल किये निकली और ब्राह्मण के शरीर में हठात प्रवेश करने लगी, ब्राह्मण मन ही मन गीता के नौवें अध्याय का जप करते थे और राजा चुपचाप यह सब कौतुक देखने लगे, ब्राह्मण के अन्तःकरण में भगवान गोविन्द शयन करते थे, वे उन्हीं का ध्यान करने लगे। <br />
<br />
ब्राह्मण ने जब गीता के नौवें अध्याय का जप करते हुए अपने भगवान का ध्यान किया, उस समय गीता के अक्षरों से प्रकट हुए विष्णु-दूतों द्वारा पीड़ित होकर वे दोनों चाण्डाल भाग चले, उनका उद्योग निष्फल हो गया, इस प्रकार इस घटना को प्रत्यक्ष देखकर राजा के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे, उन्होंने ब्राह्मण से पूछाः "विप्रवर! इस भयंकर आपत्ति को आपने कैसे पार किया? आप किस मन्त्र का जप तथा किस देवता का स्मरण कर रहे थे? वह पुरुष तथा स्त्री कौन थी? वे दोनों कैसे उपस्थित हुए? फिर वे शान्त कैसे हो गये? यह सब मुझे बताइये।<br />
<br />
<strong>ब्राह्मण ने कहाः-</strong> राजन! चाण्डाल का रूप धारण करके भयंकर पाप ही प्रकट हुआ था तथा वह स्त्री निन्दा की साक्षात मूर्ति थी, मैं इन दोनों को ऐसा ही समझता हूँ, उस समय मैं गीता के नवें अध्याय के मन्त्रों की माला जपता था, उसी का माहात्म्य है कि सारा संकट दूर हो गया, महीपते! मैं नित्य ही गीता के नौवें अध्याय का जप करता हूँ, उसी के प्रभाव से ग्रह-जनित आपत्तियों के पार हो सका हूँ, यह सुनकर राजा ने उसी ब्राह्मण से गीता के नवम अध्याय का अभ्यास किया, फिर वे दोनों ही परम शान्ति (मोक्ष) को प्राप्त हो गये।<br />
<br />
यह कथा सुनकर ब्राह्मण ने बकरे को बन्धन से मुक्त कर दिया और गीता के नौवें अध्याय के अभ्यास से परम गति को प्राप्त किया।.....<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-77603402186102251812010-05-01T06:38:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.156+05:30अध्याय नौ - राजविद्या-योग<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxmNSjQbdh587ltVYuS1A_SYRtBjJ-vVQs7lvRuLIbHQxrJij9v6nQTL3EuMkGIGLJhcepsD4jTfLtDLf6WjfWUvHpbMYpdAHKKSHtzO7NrGRhA4_Ww674eJRC0vnOU9wEfD6ohXjhUVqw/s1600/Gita+(9).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxmNSjQbdh587ltVYuS1A_SYRtBjJ-vVQs7lvRuLIbHQxrJij9v6nQTL3EuMkGIGLJhcepsD4jTfLtDLf6WjfWUvHpbMYpdAHKKSHtzO7NrGRhA4_Ww674eJRC0vnOU9wEfD6ohXjhUVqw/s640/Gita+(9).jpg" width="640" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(सृष्टि का मूल कारण)</b></span><b><br />
</b><br />
श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।<br />
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ (१)</span></div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! अब मैं तुझ ईर्ष्या न करने वाले के लिये इस परम-गोपनीय ज्ञान को अनुभव सहित कहता हूँ, जिसको जानकर तू इस दुःख-रूपी संसार से मुक्त हो सकेगा। (१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।<br />
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥ (२)</span></div><br />
भावार्थ : यह ज्ञान सभी विद्याओं का राजा, सभी गोपनीयों से भी अति गोपनीय, परम-पवित्र, परम-श्रेष्ठ है, यह ज्ञान धर्म के अनुसार सुख-पूर्वक कर्तव्य-कर्म के द्वारा अविनाशी परमात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कराने वाला है। (२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।<br />
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ (३)</span></div><br />
भावार्थ : हे परन्तप! इस धर्म के प्रति श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य मुझे न प्राप्त होकर, जन्म-मृत्यु रूपी मार्ग से इस संसार में आते-जाते रहते हैं। (३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।<br />
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥ (४)</span></div><br />
भावार्थ : मेरे कारण ही यह सारा संसार दिखाई देता है और मैं ही इस सम्पूर्ण-जगत में अदृश्य शक्ति-रूप में सभी जगह स्थित हूँ, सभी प्राणी मुझमें ही स्थित हैं परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। (४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।<br />
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ (५)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! यह मेरी एश्वर्य-पूर्ण योग-शक्ति को देख, यह सम्पूर्ण सृष्टि मुझमें कभी स्थित नहीं रहती है, फ़िर भी मैं सभी प्राणीयों का पालन-पोषण करने वाला हूँ और सभी प्राणीयों मे शक्ति रूप में स्थित हूँ परन्तु मेरा आत्मा सभी प्राणीयों में स्थित नहीं रहता है क्योंकि मैं ही सृष्टि का मूल कारण हूँ। (५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।<br />
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ (६)</span></div><br />
भावार्थ : जिस प्रकार सभी जगह बहने वाली महान वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार सभी प्राणी मुझमें स्थित रहते हैं। (६)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(जगत की परिवर्तनशील होने का कारण)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।<br />
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥ (७)</span></div><br />
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! कल्प के अन्त में सभी प्राणी मेरी प्रकृति <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(इच्छा-शक्ति)</span></b> में प्रवेश करके विलीन हो जाते हैं और अगले कल्प के आरम्भ में उनको अपनी इच्छा-शक्ति <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(प्रकृति)</span></b> से फिर उत्पन्न करता हूँ। (७)<br />
<div align="center"><b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(कल्प = 4320000 x 2000 x 365 x 100 वर्ष)</span></b></div><br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।<br />
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥ (८)</span></div><br />
भावार्थ : चौरासी लाख योनियाँ में सभी प्राणी अपनी इच्छा-शक्ति <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(प्रकृति)</span></b> के कारण बार-बार मेरी इच्छा-शक्ति से विलीन और उत्पन्न होते रहते हैं, यह सभी पूर्ण-रूप से स्वत: ही मेरी इच्छा-शक्ति <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(प्रकृति)</span></b> के अधीन होते है। (८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।<br />
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ (९)</span></div><br />
भावार्थ : हे धनन्जय! यह सभी कर्म मुझे बाँध नही पाते है क्योंकि मैं उन कार्यों में बिना किसी फ़ल की इच्छा से उदासीन भाव में स्थित रहता हूँ। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।<br />
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥ (१०)</span></div><br />
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! मेरी अध्यक्षता <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(पूर्ण-अधीनता) </span></b>में मेरी भौतिक-प्रकृति <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;"><b>(अपरा-शक्ति)</b></span> सभी चर <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(चलायमान)</span></b> तथा अचर <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(स्थिर) </span></b>जीव उत्पन्न और विनिष्ट करती रहती है, इसी कारण से यह संसार परिवर्तनशील है। (१०)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(मोह से ग्रसित और मोह से मुक्त स्वभाव वालों के लक्षण)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।<br />
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥ (११)</span></div><br />
भावार्थ : मूर्ख मनुष्य मुझे अपने ही समान निकृष्ट शरीर आधार<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(भौतिक पदार्थ से निर्मित जन्म-मृत्यु को प्राप्त होने) </span></b>वाला समझते हैं इसलिये वह सभी जीवात्माओं का परम-ईश्वर वाले मेरे स्वभाव को नहीं समझ पाते हैं। (११)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।<br />
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥ (१२)</span></div><br />
भावार्थ : ऎसे मनुष्य कभी न पूर्ण होने वाली आशा में, कभी न पूर्ण होने वाले कर्मो में और कभी न प्राप्त होने वाले ज्ञान में विशेष रूप से मोहग्रस्त हुए मेरी मोहने वाली भौतिक प्रकृति की ओर आकृष्ट होकर निश्चित रूप से राक्षसी वृत्ति और आसुरी स्वभाव धारण किए रहते हैं। (१२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।<br />
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम् ॥ (१३)</span></div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! मोह से मुक्त हुए महापुरुष दैवीय स्वभाव को धारण करके मेरी शरण ग्रहण करते हैं, और मुझको सभी जीवात्माओं का उद्गम जानकर अनन्य-भाव से मुझ अविनाशी का स्मरण करते हैं। (१३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।<br />
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥ (१४)</span></div><br />
भावार्थ : ऎसे महापुरुष दृड़-संकल्प से प्रयत्न करके निरन्तर मेरे नाम और महिमा का गुणगान करते है, और सदैव मेरी भक्ति में स्थिर होकर मुझे बार-बार प्रणाम करते हुए मेरी पूजा करते हैं। (१४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते ।<br />
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥ (१५)</span></div><br />
भावार्थ : कुछ मनुष्य ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ करके, कुछ मनुष्य मुझे एक ही तत्व जानकर, कुछ मनुष्य अलग-अलग तत्व जानकर, अनेक विधियों से निश्चित रूप से मेरे विश्व स्वरूप की ही पूजा करते हैं। (१५)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(सर्वत्र व्याप्त भगवान के स्वरूप का वर्णन)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।<br />
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥ (१६)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! मैं ही वैदिक कर्मकाण्ड को करने वाला हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही पितरों को दिये जाने वाला तर्पण हूँ, मैं ही जडी़-बूटी रूप में ओषधि हूँ, मैं ही मंत्र हूँ, मैं ही घृत हूँ, मैं ही अग्नि हूँ और मैं ही हवन मै दी जाने वाली आहूति हूँ। (१६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।<br />
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥ (१७)</span></div><br />
भावार्थ : इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का मैं ही पालन करने वाला पिता हूँ, मैं ही उत्पन्न करने वाली माता हूँ, मैं ही मूल स्रोत दादा हूँ, मैं ही इसे धारण करने वाला हूँ, मैं ही पवित्र करने वाला ओंकार शब्द से जानने योग्य हूँ, मैं ही ऋग्वेद <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सम्पूर्ण प्रार्थना)</span></b>, सामवेद <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(समत्व-भाव)</span></b> और यजुर्वेद<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(यजन की विधि)</span></b> हूँ। (१७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।<br />
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥ (१८)</span></div><br />
भावार्थ : मै ही सभी प्राप्त होने वाला परम-लक्ष्य हूँ, मैं ही सभी का भरण-पोषण करने वाला हूँ, मैं ही सभी का स्वामी हूँ, मैं ही सभी के अच्छे-बुरे कर्मो को देखने वाला हूँ, मैं ही सभी का परम-धाम हूँ, मैं ही सभी की शरण-स्थली हूँ, मैं ही सभी से प्रेम करने वाला घनिष्ट-मित्र हूँ, मैं ही सृष्टि को उत्पन्न करने वाला हूँ, मैं ही सृष्टि का संहार करने वाला हूँ, मैं ही सभी का स्थिर आधार हूँ, मै ही सभी को आश्रय देने वाला हूँ, और मैं ही सभी का अविनाशी कारण हूँ। (१८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।<br />
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ (१९)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! मैं ही सूर्य रूप में तप कर जल को भाप रूप में रोक कर वारिश रूप में उत्पन्न होता हूँ, मैं ही निश्चित रूप से अमर-तत्व हूँ, मैं ही मृत-तत्व हूँ, मै ही सत्य रूप में तत्व हूँ और मैं ही असत्य रूप में पदार्थ हूँ। (१९)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(सकाम-पूजा और निष्काम-पूजा का फल)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।<br />
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥ (२०)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य तीनों वेदों के अनुसार यज्ञों के द्वारा मेरी पूजा करके सभी पापों से पवित्र होकर सोम रस को पीने वालों के स्वर्ग-लोकों की प्राप्ति के लिये प्रार्थना करते हैं, वह मनुष्य अपने पुण्यों के फल स्वरूप इन्द्र-लोक में जन्म को प्राप्त होकर स्वर्ग में दैवी-देवताओं वाले सुखों को भोगते हैं। (२०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति ।<br />
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ (२१)</span></div><br />
भावार्थ : वह जीवात्मा उस विशाल स्वर्ग-लोक के सुखों का भोग करके पुण्य-फ़लो के समाप्त होने पर इस मृत्यु-लोक में पुन: जन्म को प्राप्त होते हैं, इस प्रकार तीनों वेदों के सिद्धान्तों का पालन करके सांसारिक सुख की कामना वाले<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सकाम-कर्मी)</span></b> मनुष्य बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। (२१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।<br />
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ (२२)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य एक मात्र मुझे लक्ष्य मान कर अनन्य-भाव से मेरा ही स्मरण करते हुए कर्तव्य-कर्म द्वारा पूजा करते हैं, जो सदैव निरन्तर मेरी भक्ति में लीन रहता है उस मनुष्य की सभी आवश्यकताऎं और सुरक्षा की जिम्मेदारी मैं स्वयं निभाता हूँ। (२२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।<br />
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥ (२३)</span></div><br />
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! जो भी मनुष्य श्रद्धा-पूर्वक भक्ति-भाव से अन्य देवी-देवताओं को पूजा करते है, वह भी निश्वित रूप से मेरी ही पूजा करते हैं, किन्तु उनका वह पूजा करना अज्ञानता-पूर्ण मेरी प्राप्ति की विधि से अलग त्रुटिपूर्ण होता है। (२३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।<br />
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥ (२४)</span></div><br />
भावार्थ : मैं ही निश्चित रूप से समस्त यज्ञों का भोग करने वाला हूँ, और मैं ही स्वामी हूँ, परन्तु वह मनुष्य मेरे वास्तविक स्वरूप को तत्त्व से नहीं जानते इसलिये वह कामनाओं के कारण पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। (२४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।<br />
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ (२५)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य देवताओं की पूजा करते हैं वह देवताओं को प्राप्त होते हैं, जो अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं वह पूर्वजों को प्राप्त होते हैं, जो भूतों <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(जीवित मनुष्यों) </span></b>की पूजा करते हैं वह उन भूतों के कुल को प्राप्त होते है, परन्तु जो मनुष्य मेरी पूजा करते हैं वह मुझे ही प्राप्त होते हैं। (२५)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।<br />
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ (२६)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य एक पत्ता, एक फ़ूल, एक फल, थोडा सा जल और कुछ भी निष्काम भक्ति-भाव से अर्पित करता है, उस शुद्ध-भक्त का निष्काम भक्ति-भाव से अर्पित किया हुआ सभी कुछ मैं स्वीकार करता हूँ। (२६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।<br />
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ (२७)</span></div><br />
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! तू जो भी कर्म करता है, जो भी खाता है, जो भी हवन करता है, जो भी दान देता है और जो भी तपस्या करता है, उस सभी को मुझे समर्पित करते हुए कर। (२७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबंधनैः ।<br />
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥ (२८)</span></div><br />
भावार्थ : इस प्रकार तू समस्त अच्छे और बुरे कर्मों के फ़लों के बन्धन से मुक्त हो जाएगा और मन से सभी सांसारिक कर्मो को त्याग कर<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(सन्यास-योग के द्वारा)</span></b> मन को परमात्मा में स्थिर करके विशेष रूप से मुक्त होकर मुझे ही प्राप्त होगा। (२८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।<br />
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥ (२९)</span></div><br />
भावार्थ : मैं सभी प्राणीयों में समान रूप से स्थित हूँ, सृष्टि में न किसी से द्वेष रखता हूँ, और न ही कोई मेरा प्रिय है, परंतु जो मनुष्य शुद्ध भक्ति-भाव से मेरा स्मरण करता है, तब वह मुझमें स्थित रहता है और मैं भी निश्चित रूप से उसमें स्थित रहता हूँ। (२९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।<br />
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ (३०)</span></div><br />
भावार्थ : यदि कोई भी अत्यन्त दुराचारी मनुष्य अनन्य-भाव से मेरा निरन्तर स्मरण करता है, तो वह निश्चित रूप से साधु ही समझना चाहिये, क्योंकि वह सम्पूर्ण रूप से मेरी भक्ति में ही स्थित है। (३०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।<br />
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ (३१)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! वह शीघ्र ही मन से शुद्ध होकर धर्म का आचरण करता हुआ चिर स्थायी परम शान्ति को प्राप्त होता है, इसलिये तू निश्चिन्त होकर घोषित कर दे कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता है। (३१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।<br />
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥ (३२)</span></div><br />
भावार्थ : हे पृथापुत्र! स्त्री, वैश्य, शूद्र अन्य किसी भी निम्न-योनि में उत्पन्न होने वाले मनुष्य हों, वह भी मेरी शरण-ग्रहण करके मेरे परम-धाम को ही प्राप्त होते हैं। (३२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।<br />
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥ (३३)</span></div><br />
भावार्थ : तो फिर पुण्यात्मा ब्राह्मणों, भक्तों और राजर्षि क्षत्रियों का तो कहना ही क्या है, इसलिए तू क्षण में नष्ट होने वाले दुख से भरे हुए इस जीवन में निरंतर मेरा ही स्मरण कर। (३३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।<br />
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥ (३४)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! तू मुझमें ही मन को स्थिर कर, मेरा ही भक्त बन, मेरी ही पूजा कर और मुझे ही प्रणाम कर, इस प्रकार अपने मन को मुझ परमात्मा में पूर्ण रूप से स्थिर करके मेरी शरण होकर तू निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त होगा। (३४)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे राजविद्यायोगो नाम नवमोऽध्यायः ॥</span><br />
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'राजविद्या-योग' नाम का नौवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥<br />
<br />
<span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-41334960357077021312010-04-30T18:00:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.128+05:30अध्याय दस का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong>भगवान शिव कहते हैं:-</strong> देवी! अब तुम दशवें अध्याय के माहात्म्य की परम पावन कथा सुनो, जो स्वर्गरूपी दुर्ग में जाने के लिए सुन्दर सोपान और प्रभाव की चरम सीमा है। <br />
<br />
काशीपुरी में धीरबुद्धि नाम से विख्यात एक ब्राह्मण था, जो मेरी प्रिय नन्दी के समान भक्ति रखता था, वह पावन कीर्ति के अर्जन में तत्पर रहने वाला, शान्त-चित्त और हिंसा, कठोरता और दुःसाहस से दूर रहने वाला था, जितेन्द्रिय होने के कारण वह निवृत्ति-मार्ग में स्थित रहता था, उसने वेद-रूपी समुद्र का पार पा लिया था, वह सम्पूर्ण शास्त्रों के तात्पर्य का ज्ञाता था, उसका चित्त सदा मेरे ध्यान में संलग्न रहता था, वह मन को अन्तरात्मा में लगाकर सदा आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया करता था, अतः जब वह चलने लगता, तब मैं प्रेम-वश उसके पीछे दौड़-दौड़कर उसे हाथ का सहारा देता रहता था। यह देख मेरे पार्षद <strong>भृंगिरिटि ने पूछाः-</strong> भगवन! इस प्रकार भला, किसने आपका दर्शन किया होगा? इस महात्मा ने कौन-सा तप, होम अथवा जप किया है कि स्वयं आप ही पग-पग पर इसे हाथ का सहारा देते रहते हैं? <br />
<br />
भृंगिरिटि का यह प्रश्न सुनकर मैंने कहा एक समय की बात है – कैलास पर्वत के पार्श्वभागम में पुन्नाग वन के भीतर चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से धुली हुई भूमि में एक वेदी का आश्रय लेकर मैं बैठा हुआ था, मेरे बैठने के क्षण भर बाद ही सहसा बड़े जोर की आँधी उठी वहाँ के वृक्षों की शाखाएँ नीचे-ऊपर होकर आपस में टकराने लगीं, कितनी ही टहनियाँ टूट-टूटकर बिखर गयीं, पर्वत की अविचल छाया भी हिलने लगी, इसके बाद वहाँ महान भयंकर शब्द हुआ, जिससे पर्वत की कन्दराएँ प्रतिध्वनित हो उठीं, तदनन्तर आकाश से कोई विशाल पक्षी उतरा, जिसकी कान्ति काले मेघ के समान थी, वह कज्जल की राशि, अन्धकार के समूह अथवा पंख कटे हुए काले पर्वत-सा जान पड़ता था, पैरों से पृथ्वी का सहारा लेकर उस पक्षी ने मुझे प्रणाम किया और एक सुन्दर नवीन कमल मेरे चरणों में रखकर स्पष्ट वाणी में स्तुति करनी आरम्भ की।<br />
<br />
<strong>पक्षी बोलाः-</strong> देव! आपकी जय हो, आप चिदानन्दमयी सुधा के सागर तथा जगत के पालक हैं, सदा सदभावना से युक्त और अनासक्ति की लहरों से उल्लसित हैं, आपके वैभव का कहीं अन्त नहीं है, आपकी जय हो, अद्वैतवासना से परिपूर्ण बुद्धि के द्वारा आप त्रिविध मलों से रहित हैं, आप जितेन्द्रिय भक्तों को अधीन अविद्यामय उपाधि से रहित, नित्य-मुक्त, निराकार, निरामय, असीम, अहंकार-शून्य, आवरण-रहित और निर्गुण हैं, आपके भयंकर ललाट-रूपी महासर्प की विष ज्वाला से आपने कामदेव को भस्म किया, आपकी जय हो। <br />
<br />
आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से दूर होते हुए भी प्रामाण स्वरूप हैं, आपको बार-बार नमस्कार है, चैतन्य के स्वामी तथा त्रिभुवनरूपधारी आपको प्रणाम है, मैं श्रेष्ठ योगियों द्वारा चुम्बित आपके उन चरण-कमलों की वन्दना करता हूँ, जो अपार भव-पाप के समुद्र से पार उतरने में अदभुत शक्तिशाली हैं, महादेव! साक्षात बृहस्पति भी आपकी स्तुति करने की धृष्टता नहीं कर सकते, सहस्र मुखों वाले नागराज शेष में भी इतना चातुर्य नहीं है कि वे आपके गुणों का वर्णन कर सकें, फिर मेरे जैसे छोटी बुद्धिवाले पक्षी की तो बिसात ही क्या है?<br />
<br />
उस पक्षी के द्वारा किये हुए इस स्तोत्र को सुनकर <strong>मैंने उससे पूछाः-</strong> "विहंगम ! तुम कौन हो और कहाँ से आये हो? तुम्हारी आकृति तो हंस जैसी है, मगर रंग कौए का मिला है, तुम जिस प्रयोजन को लेकर यहाँ आये हो, उसे बताओ।"<br />
<br />
<strong>पक्षी बोलाः-</strong> देवेश! मुझे ब्रह्मा जी का हंस जानिये, धूर्जटे! जिस कर्म से मेरे शरीर में इस समय कालिमा आ गयी है, उसे सुनिये, प्रभो! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं, अतः आप से कोई भी बात छिपी नहीं है तथापि यदि आप पूछते हैं तो बतलाता हूँ, सौराष्ट्र (सूरत) नगर के पास एक सुन्दर सरोवर है, जिसमें कमल लहलहाते रहते हैं, उसी में से बाल-चन्द्रमा के टुकड़े जैसे श्वेत मृणालों के ग्रास लेकर मैं तीव्र गति से आकाश में उड़ रहा था, उड़ते-उड़ते सहसा वहाँ से पृथ्वी पर गिर पड़ा।<br />
<br />
जब होश में आया और अपने गिरने का कोई कारण न देख सका तो मन ही मन सोचने लगा 'अहो! यह मुझ पर क्या आ पड़ा? आज मेरा पतन कैसे हो गया?' पके हुए कपूर के समान मेरे श्वेत शरीर में यह कालिमा कैसे आ गयी? इस प्रकार विस्मित होकर मैं अभी विचार ही कर रहा था कि उस पोखरे के कमलों में से मुझे ऐसी वाणी सुनाई दीः 'हंस! उठो, मैं तुम्हारे गिरने और काले होने का कारण बताती हूँ,' तब मैं उठकर सरोवर के बीच गया और वहाँ पाँच कमलों से युक्त एक सुन्दर कमलिनी को देखा, उसको प्रणाम करके मैंने प्रदक्षिणा की और अपने पतन का कारण पूछा।<br />
<br />
<strong>कमलिनी बोलीः-</strong> कलहंस! तुम आकाश मार्ग से मुझे लाँघकर गये हो, उसी पातक के परिणाम-वश तुम्हें पृथ्वी पर गिरना पड़ा है तथा उसी के कारण तुम्हारे शरीर में कालिमा दिखाई देती है, तुम्हें गिरा देख मेरे हृदय में दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमल के द्वारा बोलने लगी हूँ, उस समय मेरे मुख से निकली हुई सुगन्ध को सूँघकर साठ हजार भँवरे स्वर्ग लोक को प्राप्त हो गये हैं, पक्षिराज! जिस कारण मुझमें इतना प्रभाव आया है, उसे बतलाती हूँ, सुनो। <br />
<br />
इस जन्म से पहले तीसरे जन्म में मैं इस पृथ्वी पर एक ब्राह्मण की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थी, उस समय मेरा नाम सरोजवदना था, मैं गुरुजनों की सेवा करती हुई सदा एकमात्र पतिव्रत के पालन में तत्पर रहती थी, एक दिन की बात है, मैं एक मैना को पढ़ा रही थी, इससे पतिसेवा में कुछ विलम्ब हो गया, इससे पतिदेवता कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया 'पापिनी! तू मैना हो जा,' मरने के बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई, तथापि पातिव्रत्य के प्रसाद से मुनियों के ही घर में मुझे आश्रय मिला, किसी मुनि कन्या ने मेरा पालन-पोषण किया, मैं जिनके घर में थी, वे ब्राह्मण प्रतिदिन विभूति योग के नाम से प्रसिद्ध गीता के दसवें अध्याय का पाठ करते थे और मैं उस पापहारी अध्याय को सुना करती थी, विहंगम! काल आने पर मैं मैना का शरीर छोड़ कर दशम अध्याय के माहात्म्य से स्वर्ग लोक में अप्सरा हुई, मेरा नाम पद्मावती हुआ और मैं पद्मा की प्यारी सखी हो गयी।<br />
<br />
एक दिन मैं विमान से आकाश में विचर रही थी, उस समय सुन्दर कमलों से सुशोभित इस रमणीय सरोवर पर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतर कर ज्यों हीं मैंने जलक्रीड़ा आरम्भ की, त्यों ही दुर्वासा मुनि आ धमके, उन्होंने वस्त्रहीन अवस्था में मुझे देख लिया, उनके भय से मैंने स्वयं ही कमलिनी का रूप धारण कर लिया, मेरे दोनों पैर दो कमल हुए, दोनों हाथ भी दो कमल हो गये और शेष अंगों के साथ मेरा मुख भी कमल का हो गया, इस प्रकार मैं पाँच कमलों से युक्त हुई, मुनिवर दुर्वासा ने मुझे देखा उनके नेत्र क्रोधाग्नि से जल रहे थे। <br />
<br />
<strong>मुनिवर दुर्वासा बोलेः-</strong> 'पापिनी ! तू इसी रूप में सौ वर्षों तक पड़ी रह।' यह शाप देकर वे क्षणभर में अन्तर्धान हो गये कमलिनी होने पर भी विभूति-योगाध्याय के माहात्म्य से मेरी वाणी लुप्त नहीं हुई है, मुझे लाँघने मात्र के अपराध से तुम पृथ्वी पर गिरे हो, पक्षीराज! यहाँ खड़े हुए तुम्हारे सामने ही आज मेरे शाप की निवृत्ति हो रही है, क्योंकि आज सौ वर्ष पूरे हो गये, मेरे द्वारा गाये जाते हुए, उस उत्तम अध्याय को तुम भी सुन लो, उसके श्रवणमात्र से तुम भी आज मुक्त हो जाओगे, यह कहकर पद्मिनी ने स्पष्ट तथा सुन्दर वाणी में दसवें अध्याय का पाठ किया और वह मुक्त हो गयी, उसे सुनने के बाद उसी के दिये हुए इस कमल को लाकर मैंने आपको अर्पण किया है।<br />
<br />
इतनी कथा सुनाकर उस पक्षी ने अपना शरीर त्याग दिया, यह एक अदभुत-सी घटना हुई, वही पक्षी अब दसवें अध्याय के प्रभाव से ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ है, जन्म से ही अभ्यास होने के कारण शैशवावस्था से ही इसके मुख से सदा गीता के दसवें अध्याय का उच्चारण हुआ करता है, दसवें अध्याय के अर्थ-चिन्तन का यह परिणाम हुआ है कि यह सब भूतों में स्थित शंख-चक्रधारी भगवान विष्णु का सदा ही दर्शन करता रहता है, इसकी स्नेहपूर्ण दृष्टि जब कभी किसी देहधारी क शरीर पर पड़ जाती है, तब वह चाहे शराबी और ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो, मुक्त हो जाता है तथा पूर्वजन्म में अभ्यास किये हुए दसवें अध्याय के माहात्म्य से इसको दुर्लभ तत्त्वज्ञान प्राप्त हुआ तथा इसने जीवन्मुक्ति भी पा ली है, अतः जब यह रास्ता चलने लगता है तो मैं इसे हाथ का सहारा दिये रहता हूँ, भृंगिरिटी! यह सब दसवें अध्याय की ही महामहिमा है।<br />
<br />
<strong>भगवान शिव कहते हैं:-</strong> पार्वती ! इस प्रकार मैंने भृंगिरिटि के सामने जो पापनाशक कथा कही थी, वही तुमसे भी कही है, नर हो या नारी, अथवा कोई भी क्यों न हो, इस दसवें अध्याय के श्रवण मात्र से उसे सब आश्रमों के पालन का फल प्राप्त होता है।<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-66452064765596468892010-04-20T18:02:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.149+05:30अध्याय दस - विभूति-योग<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhB74nXpKY1l_GmQ5PfGffeA2ak0W47Nfuzbxf81ch1D5tuaj68gnOVLpybiTx70Y4Rg1CqJ4We187Qs6x_VanIass1UAV3BJgNCJqBtULEYl5bIcf6RNVGe8TPQ99aDb2Ip8rV5U73dWUA/s1600/Gita+(10).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhB74nXpKY1l_GmQ5PfGffeA2ak0W47Nfuzbxf81ch1D5tuaj68gnOVLpybiTx70Y4Rg1CqJ4We187Qs6x_VanIass1UAV3BJgNCJqBtULEYl5bIcf6RNVGe8TPQ99aDb2Ip8rV5U73dWUA/s640/Gita+(10).jpg" width="640" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(भगवान की ऎश्वर्य पूर्ण योग-शक्ति)</b></span><b><br />
</b><br />
श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।<br />
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥ (१)</span></div><br />
भावार्थ : श्री भगवान् ने कहा - हे महाबाहु अर्जुन! तू मेरे परम-प्रभावशाली वचनों को फ़िर से सुन, क्योंकि मैं तुझे अत्यन्त प्रिय मानता हूँ इसलिये तेरे हित के लिये कहता हूँ। (१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।<br />
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥ (२)</span></div><br />
भावार्थ : मेरे ऎश्वर्य के प्रभाव को न तो कोई देवतागण जानते हैं और न ही कोई महान ऋषिगण ही जानते हैं, क्योंकि मैं ही सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियों को उत्पन्न करने वाला हूँ। (२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।<br />
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ (३)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य मुझे जन्म-मृत्यु रहित, आदि-अंत रहित और सभी लोकों का महान ईश्वरीय रूप को जान जाता है, वह मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य मोह से मुक्त होकर सभी पापों से मुक्त हो जाता है। (३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।<br />
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥ (४)<br />
<br />
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।<br />
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥ (५)</span></div><br />
भावार्थ : संशय को मिटाने वाली बुद्धि, मोह से मुक्ति दिलाने वाला ज्ञान, क्षमा का भाव, सत्य का आचरण, इंद्रियों का नियन्त्रण, मन की स्थिरता, सुख-दुःख की अनुभूति, जन्म-मृत्यु का कारण, भय-अभय की चिन्ता, अहिंसा का भाव, समानता का भाव, संतुष्ट होने का स्वभाव, तपस्या की शक्ति, दानशीलता का भाव और यश-अपयश की प्राप्ति में जो भी कारण होते हैं यह सभी मनुष्यों के अनेकों प्रकार के भाव मुझसे ही उत्पन्न होते हैं। (४-५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।<br />
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥ (६)</span></div><br />
भावार्थ : सातों महान ऋषि और उनसे भी पहले उत्पन्न होने वाले चारों सनकादि कुमारों तथा स्वयंभू मनु आदि यह सभी मेरे मन की इच्छा-शक्ति से उत्पन्न हुए हैं, संसार के सभी लोकों के समस्त जीव इन्ही की ही सन्ताने है। (६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।<br />
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥ (७)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य मेरी इस विशेष ऎश्वर्य-पूर्ण योग-शक्ति को तत्त्व सहित जानता है, वह स्थिर मन से मेरी भक्ति में स्थित हो जाता है इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है। (७)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(भक्ति-योग का फ़ल)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।<br />
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ (८)</span></div><br />
भावार्थ : मैं ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सम्पूर्ण जगत की क्रियाशीलता है, इस प्रकार मानकर विद्वान मनुष्य अत्यन्त भक्ति-भाव से मेरा ही निरंतर स्मरण करते हैं। (८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।<br />
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ (९)</span></div><br />
भावार्थ : जिन मनुष्यों के चित्त मुझमें स्थिर रहते हैं और जिन्होने अपना जीवन मुझको ही समर्पित कर दिया हैं, वह भक्तजन आपस में एक दूसरे को मेरा अनुभव कराते हैं, वह भक्त मेरा ही गुणगान करते हुए निरन्तर संतुष्ट रहकर मुझमें ही आनन्द की प्राप्ति करते हैं। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।<br />
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ (१०)</span></div><br />
भावार्थ : जो सदैव अपने मन को मुझमें स्थित रखते हैं और प्रेम-पूर्वक निरन्तर मेरा स्मरण करते हैं, उन भक्तों को मैं वह बुद्धि प्रदान करता हूँ, जिससे वह मुझको ही प्राप्त होते हैं। (१०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।<br />
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ (११)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! उन भक्तों पर विशेष कृपा करने के लिये उनके हृदय में स्थित आत्मा के द्वारा उनके अज्ञान रूपी अंधकार को ज्ञान रूपी दीपक के प्रकाश से दूर करता हूँ। (११)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(अर्जुन द्वारा स्तुति)</b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।<br />
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥ (१२)</span></div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! आप परमेश्वर हैं, आप परब्रह्म हैं, आप परम-आश्रय दाता हैं, आप परम-शुद्ध चेतना हैं, आप शाश्वत-पुरुष हैं, आप दिव्य हैं, आप अजन्मा हैं, आप समस्त देवताओं के भी आदिदेव और आप ही सर्वत्र व्याप्त हैं। (१२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।<br />
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥ (१३)</span></div><br />
भावार्थ : हे कृष्ण! जो अब आप स्वयं मुझे बता रहे हैं यह तो सभी ऋषिगण असित, देवल और व्यास तथा देवर्षि नारद भी कहते हैं। (१३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।<br />
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥ (१४)</span></div><br />
भावार्थ : हे केशव! जो यह सब कुछ आप मुझे बता रहे हैं, उसे मैं पूर्ण-सत्य रूप से स्वीकार करता हूँ, हे प्रभु! आपके स्वरूप को न तो देवतागण और न ही असुरगण जान सकते हैं। (१४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।<br />
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥ (१५)</span></div><br />
भावार्थ : हे पुरूषोत्तम! हे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी! हे समस्त देवताओं के देव! हे समस्त प्राणीयों को उत्पन्न करने वाले! हे सभी प्राणीयों के ईश्वर! एकमात्र आप ही अपने आपको जानते हैं या फ़िर वह ही जान पाता है जिसकी अन्तर-आत्मा में प्रकट होकर आप अपना ज्ञान कराते हैं। (१५)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(अर्जुन द्वारा भगवान के ऎश्वर्यों के वर्णन के लिए प्रार्थना)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।<br />
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥ (१६)</span></div><br />
भावार्थ : हे कृष्ण! कृपा करके आप अपने उन अलौकिक ऎश्वर्यपूर्ण स्वरूपों को विस्तार से कहिये जिसे कहने में केवल आप ही समर्थ हैं, जिन ऎश्वर्यों द्वारा आप इन सभी लोकों में व्याप्त होकर स्थित हैं। (१६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।<br />
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥ (१७)</span></div><br />
भावार्थ : हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार आपका निरन्तर चिंतन करके आपको जान सकता हूँ, और मैं आपके ईश्वरीय स्वरूप का किन-किन भावों से स्मरण करूँ? (१७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।<br />
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ (१८)</span></div><br />
भावार्थ : हे जनार्दन! अपनी योग-शक्ति और अपने ऎश्वर्यपूर्ण रूपों को फिर भी विस्तार से कहिए, क्योंकि आपके अमृत स्वरूप वचनों को सुनते हुए भी मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। (१८)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(भगवान द्वारा अपने ऎश्वर्यों का वर्णन)</b></span><b><br />
</b><br />
श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।<br />
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥ (१९)</span></div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे कुरुश्रेष्ठ! हाँ अब मैं तेरे लिये अपने मुख्य अलौकिक ऎश्वर्यपूर्ण रूपों को कहूँगा, क्योंकि मेरे विस्तार की तो कोई सीमा नहीं है। (१९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।<br />
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥ (२०)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! मैं समस्त प्राणीयों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ और मैं ही सभी प्राणीयों की उत्पत्ति का, मैं ही सभी प्राणीयों के जीवन का और मैं ही सभी प्राणीयों की मृत्यु का कारण हूँ। (२०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।<br />
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥ (२१)</span></div><br />
भावार्थ : मैं सभी आदित्यों में विष्णु हूँ, मैं सभी ज्योतियों में प्रकाशमान सूर्य हूँ, मैं सभी मरुतों में मरीचि नामक वायु हूँ, और मैं ही सभी नक्षत्रों में चंद्रमा हूँ। (२१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।<br />
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥ (२२)</span></div><br />
भावार्थ : मैं सभी वेदों में सामवेद हूँ, मैं सभी देवताओं में स्वर्ग का राजा इंद्र हूँ, सभी इंद्रियों में मन हूँ, और सभी प्राणियों में चेतना स्वरूप जीवन-शक्ति हूँ। (२२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।<br />
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥ (२३)</span></div><br />
भावार्थ : मैं सभी रुद्रों में शिव हूँ, मैं यक्षों तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ, मैं सभी वसुओं में अग्नि हूँ और मै ही सभी शिखरों में मेरु हूँ। (२३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।<br />
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥ (२४)</span></div><br />
भावार्थ : हे पार्थ! सभी पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति मुझे ही समझ, मैं सभी सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ, और मैं ही सभी जलाशयों में समुद्र हूँ। (२४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।<br />
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥ (२५)</span></div><br />
भावार्थ : मैं महर्षियों में भृगु हूँ, मैं सभी वाणी में एक अक्षर हूँ, मैं सभी प्रकार के यज्ञों में जप <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(कीर्तन)</span></b> यज्ञ हूँ, और मैं ही सभी स्थिर<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(अचल) </span></b>रहने वालों में हिमालय पर्वत हूँ। (२५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।<br />
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥ (२६)</span></div><br />
भावार्थ : मैं सभी वृक्षों में पीपल हूँ, मैं सभी देवर्षियों में नारद हूँ, मै सभी गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और मै ही सभी सिद्ध पुरूषों में कपिल मुनि हूँ। (२६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्धवम् ।<br />
एरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥ (२७)</span></div><br />
भावार्थ : समस्त घोड़ों में समुद्र मंथन से अमृत के साथ उत्पन्न उच्चैःश्रवा घोड़ा मुझे ही समझ, मैं सभी हाथियों में ऐरावत हूँ, और मैं ही सभी मनुष्यों में राजा हूँ। (२७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।<br />
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥ (२८)</span></div><br />
भावार्थ : मैं सभी हथियारों में वज्र हूँ, मैं सभी गायों में सुरभि हूँ, मैं धर्मनुसार सन्तान उत्पत्ति का कारण रूप प्रेम का देवता कामदेव हूँ, और मै ही सभी सर्पों में वासुकि हूँ। (२८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।<br />
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ (२९)</span></div><br />
भावार्थ : मैं सभी नागों <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(फ़न वाले सर्पों) </span></b>में शेषनाग हूँ, मैं समस्त जलचरों में वरुणदेव हूँ, मैं सभी पितरों में अर्यमा हूँ, और मैं ही सभी नियमों को पालन करने वालों में यमराज हूँ। (२९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।<br />
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥ (३०)</span></div><br />
भावार्थ : मैं सभी असुरों में भक्त-प्रहलाद हूँ, मै सभी गिनती करने वालों में समय हूँ, मैं सभी पशुओं में सिंह हूँ, और मैं ही पक्षियों में गरुड़ हूँ। (३०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।<br />
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥ (३१)</span></div><br />
भावार्थ : मैं समस्त पवित्र करने वालों में वायु हूँ, मैं सभी शस्त्र धारण करने वालों में राम हूँ, मैं सभी मछलियों में मगर हूँ, और मैं ही समस्त नदियों में गंगा हूँ। (३१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।<br />
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ (३२)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! मैं ही समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अंत हूँ, मैं सभी विद्याओं में ब्रह्मविद्या हूँ, और मैं ही सभी तर्क करने वालों में निर्णायक सत्य हूँ। (३२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।<br />
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ (३३)</span></div><br />
भावार्थ : मैं सभी अक्षरों में ओंकार हूँ, मैं ही सभी समासों में द्वन्द्व हूँ, मैं कभी न समाप्त होने वाला समय हूँ, और मैं ही सभी को धारण करने वाला विराट स्वरूप हूँ। (३३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।<br />
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥ (३४)</span></div><br />
भावार्थ : मैं ही सभी को नष्ट करने वाली मृत्यु हूँ, मैं ही भविष्य में सभी को उत्पन्न करने वाली सृष्टि हूँ, स्त्रीयों वाले गुणों में कीर्ति, सोन्दर्य, वाणी की मधुरता, स्मरण शक्ति, बुद्धि, धारणा और क्षमा भी मै ही हूँ। (३४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।<br />
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥ (३५)</span></div><br />
भावार्थ : मैं सामवेद की गाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम हूँ, मैं छंदों में गायत्री छंद हूँ, मैं महीनों में मार्गशीर्ष और मैं ही ऋतुओं में वसंत हूँ। (३५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।<br />
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥ (३६)</span></div><br />
भावार्थ : मैं छलने वालो का जुआ हूँ, मैं तेजस्वियों का तेज हूँ, मैं जीतने वालों की विजय हूँ, मैं व्यवसायियों का निश्चय हूँ और मैं ही सत्य बोलने वालों का सत्य हूँ। (३६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।<br />
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥ (३७)</span></div><br />
भावार्थ : मैं वृष्णिवंशियों में वासुदेव हूँ, मैं ही पाण्डवों में अर्जुन हूँ, मैं मुनियों में वेदव्यास हूँ, और मैं ही कवियों में शुक्राचार्य हूँ। (३७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।<br />
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥ (३८)</span></div><br />
भावार्थ : मैं दमन करने वालों का दंड हूँ, मैं विजय की कामना वालों की नीति हूँ, मैं रहस्य रखने वालों का मौन हूँ और मैं ही ज्ञानीयों का ज्ञान हूँ। (३८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।<br />
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ (३९)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! वह बीज भी मैं ही हूँ जिनके कारण सभी प्राणीयों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि संसार में कोई भी ऎसा चर <b><span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(चलायमान)</span></b> या अचर<b> <span class="Apple-style-span" style="color: #009900;">(स्थिर)</span></b> प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना अलग रह सके। (३९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।<br />
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥ (४०)</span></div><br />
भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! मेरी लौकिक और अलौकिक ऎश्वर्यपुर्ण स्वरूपों का अंत नहीं है, मैंने अपने इन ऎश्वर्यों का वर्णन तो तेरे लिए संक्षिप्त रूप से कहा है। (४०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।<br />
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥ (४१)</span></div><br />
भावार्थ : जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तुयें है, उन-उन को तू मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ समझ। (४१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।<br />
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥ (४२)</span></div><br />
भावार्थ : किन्तु हे अर्जुन! तुझे इस प्रकार सारे ज्ञान को विस्तार से जानने की आवश्यकता ही क्या है, मैं तो अपने एक अंश मात्र से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करके सर्वत्र स्थित रहता हूँ। (४२)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥</span><br />
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'विभूति-योग' नाम का दसवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ।<br />
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<span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-89317907763510553622010-04-10T21:39:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.163+05:30अध्याय ग्यारह का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong>श्री महादेवजी कहते हैं:-</strong> प्रिये! गीता के वर्णन से सम्बन्ध रखने वाली कथा और विश्वरूप अध्याय के पावन माहात्म्य को सुनो, विशाल नेत्रों वाली पार्वती! इस अध्याय के माहात्म्य का पूरा-पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता है, इसके सम्बन्ध में कई कथाएँ हैं, उनमें से एक कथा कहता हूँ। <br />
<br />
प्रणीता नदी के तट पर मेघंकर नाम से विख्यात एक बहुत बड़ा नगर है, उसकी चारों दीवार और द्वार बहुत ऊँचे हैं, वहाँ बड़े-बड़े विश्राम गृह हैं, जहाँ के सोने के खम्भे शोभा बढा़ रहे हैं, उस नगर में श्रीमान, सुखी, शान्त, सदाचारी तथा जितेन्द्रिय मनुष्यों का निवास है, वहाँ हाथ में शारंग नामक धनुष धारण करने वाले जगदीश्वर भगवान विष्णु विराजमान हैं, वे परब्रह्म के साकार स्वरूप हैं, उनका गौरव-पूर्ण श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मी के नेत्र-कमलों द्वारा पूजित होता है, भगवान की वह झाँकी वामन-अवतार की है, मेघ के समान उनका श्यामवर्ण तथा कोमल आकृति है, वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न शोभा पाता है, वे कमल और वनमाला से सुशोभित हैं, अनेक प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हो भगवान वामन रत्न से युक्त समुद्र के सदृश जान पड़ते हैं, पीताम्बर से उनके श्याम विग्रह की कान्ति ऐसी प्रतीत होती है, मानो चमकती हुई बिजली से घिरा हुआ मेघ शोभा पा रहा हो, उन भगवान वामन का दर्शन करके जीव जन्म और संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है, उस नगर में मेखला नामक महान तीर्थ है, जिसमें स्नान करके मनुष्य शाश्वत वैकुण्ठधाम को प्राप्त होता है, वहाँ जगत के स्वामी करुणा के सागर भगवान नृसिंह का दर्शन करने से मनुष्य के सात जन्मों के किये हुए घोर पाप से छुटकारा पा जाता है, जो मनुष्य मेखला में गणेशजी का दर्शन करता है, वह सदा दुस्तर विघ्नों से पार हो जाता है।<br />
<br />
उसी मेघंकर नगर में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्य परायण, ममता और अहंकार से रहित, वेद शास्त्रों में प्रवीण, जितेन्द्रिय तथा भगवान वासुदेव के शरणागत थे, उनका नाम सुनन्द था, प्रिये! वे शारंग धनुष धारण करने वाले भगवान के पास गीता के ग्यारहवें अध्याय-विश्वरूप दर्शन का पाठ किया करते थे, उस अध्याय के प्रभाव से उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी, परमानन्द-संदोह से पूर्ण उत्तम ज्ञानमयी समाधी के द्वारा इन्द्रियों के अन्तर्मुख हो जाने के कारण वे निश्चल स्थिति को प्राप्त हो गये थे और सदा जीवन मुक्त योगी की स्थिति में रहते थे, एक समय जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित थे। <br />
<br />
महायोगी सुनन्द ने गोदावरी तीर्थ की यात्रा आरम्भ की, वे क्रमशः विरज तीर्थ, तारा तीर्थ, कपिला संगम, अष्ट तीर्थ, कपिला द्वार, नृसिंह वन, अम्बिका पुरी तथा करस्थानपुर आदि क्षेत्रों में स्नान और दर्शन करते हुए विवाद मण्डप नामक नगर में आये, वहाँ उन्होंने प्रत्येक घर में जाकर अपने ठहरने के लिए स्थान माँगा, परन्तु कहीं भी उन्हें स्थान नहीं मिला, अन्त में गाँव के मुखिया ने उन्हें बहुत बड़ी धर्मशाला दिखा दी, ब्राह्मण ने साथियों सहित उसके भीतर जाकर रात में निवास किया, सबेरा होने पर उन्होंने अपने को तो धर्मशाला के बाहर पाया, किंतु उनके और साथी नहीं दिखाई दिये, वे उन्हें खोजने के लिए चले, इतने में ही मुखिया से उनकी भेंट हो गयी। <br />
<br />
<strong>मुखिया ने कहाः-</strong> "मुनिश्रेष्ठ! तुम सब प्रकार से दीर्घायु जान पड़ते हो, सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान पुरुषों में तुम सबसे पवित्र हो, तुम्हारे साथी कहाँ गये? कैसे इस भवन से बाहर हुए? इसका पता लगाओ, मैं तुम्हारे सामने इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे जैसा तपस्वी मुझे दूसरा कोई दिखाई नहीं देता, विप्रवर! तुम्हें किस महामन्त्र का ज्ञान है? किस विद्या का आश्रय लेते हो तथा किस देवता की दया से तुम्हे अलौकिक शक्ति प्राप्त हो गयी हैं? ब्राह्मण देव! कृपा करके इस गाँव में रहो, मैं तुम्हारी सब प्रकार से सेवा-सुश्रूषा करूँगा, यह कहकर मुखिया ने मुनीश्वर सुनन्द को अपने गाँव में ठहरा लिया, वह दिन रात बड़ी भक्ति से उसकी सेवा करने लगा, जब सात-आठ दिन बीत गये, तब एक दिन प्रातःकाल आकर वह बहुत दुःखी हो महात्मा के सामने रोने लगा और बोला "हाय! आज रात में राक्षस ने मेरे बेटे को खा लिया है, मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान और भक्तिमान था। <br />
<br />
<strong>सुनन्द ने पूछाः-</strong> "कहाँ है वह राक्षस? और किस प्रकार उसने तुम्हारे पुत्र का भक्षण किया है? <br />
<br />
<strong>मुखिया बोलाः-</strong> ब्राह्मण देव! इस नगर में एक बड़ा भयंकर नर-भक्षी राक्षस रहता है, वह प्रतिदिन आकर इस नगर में मनुष्यों को खा लिया करता था, तब एक दिन समस्त नगर वासियों ने मिलकर उससे प्रार्थना की "राक्षस! तुम हम सब लोगों की रक्षा करो, हम तुम्हारे लिए भोजन की व्यवस्था किये देते हैं, यहाँ बाहर के जो पथिक रात में आकर नींद लेंगे, उनको खा जाना" इस प्रकार नागरिक मनुष्यों ने गाँव के मुझ मुखिया द्वारा इस धर्मशाला में भेजे हुए पथिकों को ही राक्षस का आहार निश्चित किया, अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ा, आप भी अन्य राहगीरों के साथ इस घर में आकर सोये थे, किंतु राक्षस ने उन सब को तो खा लिया, केवल तुम्हें छोड़ दिया है। <br />
<br />
हे ब्राहमणश्रेष्ठ! तुममें ऐसा क्या प्रभाव है, इस बात को तुम्हीं जानते हो, इस समय मेरे पुत्र का एक मित्र आया था, किंतु मैं उसे पहचान न सका, वह मेरे पुत्र को बहुत ही प्रिय था, किंतु अन्य राहगीरों के साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशाला में भेज दिया, मेरे पुत्र ने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश कर गया है, तब वह उसे वहाँ से ले आने के लिए गया, परन्तु राक्षस ने उसे भी खा लिया, आज सवेरे मैंने बहुत दुःखी होकर उस पिशाच से पूछा "ओ दुष्टात्मन्! तूने रात में मेरे पुत्र को भी खा लिया, तेरे पेट में पड़ा हुआ मेरा पुत्र जिससे जीवित हो सके, ऐसा कोई उपाय यदि हो तो बता।"<br />
<br />
<strong>राक्षस ने कहाः-</strong> मुखिया! धर्मशाला के भीतर घुसे हुए तुम्हारे पुत्र को न जानने के कारण मैंने भक्षण किया है, अन्य पथिकों के साथ तुम्हारा पुत्र भी अनजाने में ही मेरा ग्रास बन गया है, वह मेरे उदर में जिस प्रकार जीवित और रक्षित रह सकता है, वह उपाय स्वयं विधाता ने ही कर दिया है, जो ब्राह्मण सदा गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ करता हो, उसके प्रभाव से मेरी मुक्ति होगी और मरे हुओं को पुनः जीवन प्राप्त होगा, यहाँ कोई ब्राह्मण रहते हैं, जिनको मैंने एक दिन धर्मशाला से बाहर कर दिया था, वे निरन्तर गीता के ग्यारहवें अध्याय का जप किया करते हैं, इस अध्याय के मंत्र से सात बार अभिमन्त्रित करके यदि वे मेरे ऊपर जल का छींटा दें तो निःसंदेह मेरा शाप से उद्धार हो जाएगा, इस प्रकार उस राक्षस का संदेश पाकर मैं तुम्हारे निकट आया हूँ।<br />
<br />
<strong>ग्रामपाल बोलाः-</strong> हे ब्राह्मण! पहले इस गाँव में कोई किसान ब्राह्मण रहता था, एक दिन वह अगहनी के खेत की क्यारियों की रक्षा करने में लगा था, वहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राही को मार कर खा रहा था, उसी समय एक तपस्वी कहीं से आ निकले, जो उस राही को लिए दूर से ही दया दिखाते आ रहे थे, गिद्ध उस राही को खाकर आकाश में उड़ गया, तब उस तपस्वी ने उस किसान से कहा "ओ दुष्ट हलवाहे! तुझे धिक्कार है! तू बड़ा ही कठोर और निर्दयी है, दूसरे की रक्षा से मुँह मोड़कर केवल पेट पालने के धंधे में लगा है, तेरा जीवन नष्टप्राय है, अरे! शक्ति होते हुए भी जो चोर, दाढ़वाले जीव, सर्प, शत्रु, अग्नि, विष, जल, गीध, राक्षस, भूत तथा बेताल आदि के द्वारा घायल हुए मनुष्यों की उपेक्षा करता है, वह उनके वध का फल पाता है। <br />
<br />
जो शक्तिशाली होकर भी चोर आदि के चंगुल में फँसे हुए ब्राह्मण को छुड़ाने की चेष्टा नहीं करता, वह घोर नरक में पड़ता है और पुनः भेड़िये की योनि में जन्म लेता है, जो वन में मारे जाते हुए तथा गिद्ध और व्याघ्र की दृष्टि में पड़े हुए जीव की रक्षा के लिए 'छोड़ो....छोड़ो...' की पुकार करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है, जो मनुष्य गौओं की रक्षा के लिए व्याघ्र, भील तथा दुष्ट राजाओं के हाथ से मारे जाते हैं, वे भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होते हैं जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है, सहस्र अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ मिलकर शरणागत-रक्षा की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते, दीन तथा भयभीत जीव की उपेक्षा करने से पुण्यवान पुरुष भी समय आने पर कुम्भीपाक नामक नरक में पकाया जाता है, तूने दुष्ट गिद्ध के द्वारा खाये जाते हुए राही को देखकर उसे बचाने में समर्थ होते हुए भी जो उसकी रक्षा नहीं की, इससे तू निर्दयी जान पड़ता है, अतः तू राक्षस हो जा।<br />
<br />
<strong>हलवाहा बोलाः-</strong> महात्मन्! मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था, किंतु मेरे नेत्र बहुत देर से खेत की रक्षा में लगे थे, अतः पास होने पर भी गिद्ध के द्वारा मारे जाते हुए इस मनुष्य को मैं नहीं देख सका, अतः मुझ दीन पर आपको अनुग्रह करना चाहिए।<br />
<br />
<strong>तपस्वी ब्राह्मण ने कहाः-</strong> जो प्रति दिन गीता के ग्यारहवें अध्याय का जप करता है, उस मनुष्य के द्वारा अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तक पर पड़ेगा, उस समय तुम्हे शाप से छुटकारा मिल जायेगा, यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह हलवाहा राक्षस हो गया, अतः द्विजश्रेष्ठ! तुम चलो और ग्यारहवें अध्याय से तीर्थ के जल को अभिमन्त्रित करो फिल अपने ही हाथ से उस राक्षस के मस्तक पर उसे छिड़क दो।<br />
<br />
मुखिया की यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मण के हृदय में करुणा भर आयी, वे 'बहुत अच्छा' कहकर उसके साथ राक्षस के निकट गये, वे ब्राह्मण योगी थे, उन्होंने विश्वरूप-दर्शन नामक ग्यारहवें अध्याय से जल अभिमन्त्रित करके उस राक्षस के मस्तक पर डाला, गीता के ग्यारहवें अध्याय के प्रभाव से वह शाप से मुक्त हो गया, उसने राक्षस-देह का परित्याग करके चतुर्भुजरूप धारण कर लिया तथा उसने जिन सहस्रों प्राणियों का भक्षण किया था, वे भी शंख, चक्र और गदा धारण किये हुए चतुर्भुजरूप हो गये, तत्पश्चात् वे सभी विमान पर सवार हुए। <br />
<br />
<strong>मुखिया ने राक्षस से कहाः-</strong> "निशाचर! मेरा पुत्र कौन है? उसे दिखाओ," उसके यों कहने पर दिव्य बुद्धिवाले राक्षस ने कहा 'ये जो तमाल के समान श्याम, चार भुजाधारी, माणिक के मुकुट से सुशोभित तथा दिव्य मणियों के बने हुए कुण्डलों से अलंकृत हैं, हार पहनने के कारण जिनके कन्धे मनोहर प्रतीत होते हैं, जो सोने के भुजबंदों से विभूषित, कमल के समान नेत्रवाले, हाथ में कमल लिए हुए हैं और दिव्य विमान पर बैठकर देवत्व के प्राप्त हो चुके हैं, इन्हीं को अपना पुत्र समझो,' यह सुनकर मुखिया ने उसी रूप में अपने पुत्र को देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा, यह देख उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा।<br />
<br />
<strong>पुत्र बोलाः-</strong> मुखिया! कई बार तुम भी मेरे पुत्र बन चुके हो, पहले मैं तुम्हारा पुत्र था, किंतु अब देवता हो गया हूँ, इन ब्राह्मण देवता के प्रसाद से वैकुण्ठ-धाम को जाऊँगा, देखो, यह निशाचर भी चतुर्भुज रूप को प्राप्त हो गया, ग्यारहवें अध्याय के माहात्म्य से यह सब लोगों के साथ श्रीविष्णु धाम को जा रहा है, अतः तुम भी इन ब्राह्मणदेव से गीता के ग्यारहवें अध्याय का अध्ययन करो और निरन्तर उसका जप करते रहो, इसमें सन्देह नहीं कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी, तात! मनुष्यों के लिए साधु पुरुषों का संग सर्वथा दुर्लभ है, वह भी इस समय तुम्हें प्राप्त है, अतः अपना अभीष्ट सिद्ध करो, धन, भोग, दान, यज्ञ, तपस्या और पूर्वकर्मों से क्या लेना है? विश्वरूप अध्याय के पाठ से ही परम कल्याण की प्राप्त हो जाती है।<br />
<br />
सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्म के मुख से कुरुक्षेत्र में अपने मित्र अर्जुन के प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था, वही श्रीविष्णु का परम तात्त्विक रूप है, तुम उसी का चिन्तन करो, वह मोक्ष के लिए प्रसिद्ध रसायन, संसार-भय से डरे हुए मनुष्यों की आधि-व्याधि का विनाशक तथा अनेक जन्म के दुःखों का नाश करने वाला है, मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधन को ऐसा नहीं देखता, अतः उसी का अभ्यास करो।<br />
<br />
<strong>श्री महादेव कहते हैं:–</strong> यह कहकर वह सबके साथ श्रीविष्णु के परम धाम को चला गया, तब मुखिया ने ब्राह्मण के मुख से उस अध्याय को पढ़ा फिर वे दोनों ही उसके माहात्म्य से विष्णुधाम को चले गये, पार्वती! इस प्रकार तुम्हें ग्यारहवें अध्याय की माहात्म्य की कथा सुनायी है, इसके श्रवण मात्र से महान पातकों का नाश हो जाता है।<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-53703788271831523862010-04-01T21:45:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.140+05:30अध्याय ग्यारह - विश्वरूप दर्शन-योग<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1MgwQ_Ce1VRRXI9zoExsVPWSzu1UOCavN6vA1GGrIoc9-6fTR1OUxLSsoD_DaPRM8Bm312wkyqTLfOFeos3n-Y80b6yTMGv7bNoUb8TMm1kKCxH9qVHIGRm9neBnMeM8nNknObk3V-hcs/s1600/Gita+(11).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1MgwQ_Ce1VRRXI9zoExsVPWSzu1UOCavN6vA1GGrIoc9-6fTR1OUxLSsoD_DaPRM8Bm312wkyqTLfOFeos3n-Y80b6yTMGv7bNoUb8TMm1kKCxH9qVHIGRm9neBnMeM8nNknObk3V-hcs/s640/Gita+(11).jpg" width="640" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (अर्जुन द्वारा विश्वरूप के दर्शन के लिये प्रार्थना)</b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम् ।<br />
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ (१)</span></div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - मुझ पर कृपा करने के लिए आपने जो परम-गोपनीय अध्यात्मिक विषयक ज्ञान दिया है, उस उपदेश से मेरा यह मोह दूर हो गया है। (१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।<br />
त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥ (२)</span></div><br />
भावार्थ : हे कमलनयन! मैंने आपसे समस्त सृष्टि की उत्पत्ति तथा प्रलय और आपकी अविनाशी महिमा का भी वर्णन विस्तार से सुना हैं। (२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।<br />
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥ (३)</span></div><br />
भावार्थ : हे परमेश्वर! इस प्रकार यह जैसा आप के द्वारा वर्णित आपका वास्तविक रूप है मैं वैसा ही देख रहा हूँ, किन्तु हे पुरुषोत्तम! मै आपके ऐश्वर्य-युक्त रूप को मैं प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूँ। (३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।<br />
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥ (४)</span></div><br />
भावार्थ : हे प्रभु! यदि आप उचित मानते हैं कि मैं आपके उस रूप को देखने में समर्थ हूँ, तब हे योगेश्वर! आप कृपा करके मुझे अपने उस अविनाशी विश्वरूप में दर्शन दीजिये। (४)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (भगवान द्वारा विश्वरूप का वर्णन)</b></span><b><br />
</b><br />
श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।<br />
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥ (५)</span></div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे पार्थ! अब तू मेरे सैकड़ों-हजारों अनेक प्रकार के अलौकिक रूपों को और अनेक प्रकार के रंगो वाली आकृतियों को भी देख। (५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।<br />
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥ (६)</span></div><br />
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! तू मुझमें अदिति के बारह पुत्रों को, आठों वसुओं को, ग्यारह रुद्रों को, दोनों अश्विनी कुमारों को, उनचासों मरुतगणों को और इसके पहले कभी किसी के द्वारा न देखे हुए उन अनेकों आश्चर्यजनक रूपों को भी देख। (६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।<br />
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥ (७)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख। (७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।<br />
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥ (८)</span></div><br />
भावार्थ : किन्तु तू अपनी इन आँखो की दृष्टि से मेरे इस रूप को देखने में निश्चित रूप से समर्थ नहीं है, इसलिये मैं तुझे अलौकिक दृष्टि देता हूँ, जिससे तू मेरी इस ईश्वरीय योग-शक्ति को देख। (८)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (संजय द्वारा धृतराष्ट्र के समक्ष विश्वरूप का वर्णन)</b></span><b><br />
</b><br />
संजय उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।<br />
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥ (९)</span></div><br />
भावार्थ : संजय ने कहा - हे राजन्! इस प्रकार कहकर परम-शक्तिशाली योगी भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्य-युक्त अलौकिक विश्वरूप दिखलाया। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।<br />
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥ (१०)<br />
<br />
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।<br />
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥ (११)</span></div><br />
भावार्थ : इस विश्वरूप में अनेकों मुँह, अनेकों आँखे, अनेकों आश्चर्यजनक दिव्य-आभूषणों से युक्त, अनेकों दिव्य-शस्त्रों को उठाये हुए, दिव्य-मालाऎँ, वस्त्र को धारण किये हुए, दिव्य गन्ध का अनुलेपन किये हुए, सभी प्रकार के आश्चर्यपूर्ण प्रकाश से युक्त, असीम और सभी दिशाओं में मुख किए हुए सर्वव्यापी परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। (१०-११)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।<br />
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ (१२)</span></div><br />
भावार्थ : यदि आकाश में एक हजार सूर्य एक साथ उदय हो तो उनसे उत्पन्न होने वाला वह प्रकाश भी उस सर्वव्यापी परमेश्वर के प्रकाश की शायद ही समानता कर सके। (१२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।<br />
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥ (१३)</span></div><br />
भावार्थ : पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से अलग-अलग सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को सभी देवताओं के भगवान श्रीकृष्ण के उस शरीर में एक स्थान में स्थित देखा। (१३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः ।<br />
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥ (१४)</span></div><br />
भावार्थ : तब आश्चर्यचकित, हर्ष से रोमांचित हुए शरीर से अर्जुन ने भगवान को सिर झुकाकर प्रणाम करके और हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए बोला। (१४)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (अर्जुन द्वारा विश्वरूप की स्तुति करना)</b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् ।<br />
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥ (१५)</span></div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे भगवान श्रीकृष्ण! मैं आपके शरीर में समस्त देवताओं को तथा अनेकों विशेष प्राणीयों को एक साथ देख रहा हूँ, और कमल के आसन पर स्थित ब्रह्मा जी को, शिव जी को, समस्त ऋषियों को और दिव्य सर्पों को भी देख रहा हूँ। (१५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।<br />
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥ (१६)</span></div><br />
भावार्थ : हे विश्वेश्वर! मैं आपके शरीर में अनेकों हाथ, पेट, मुख और आँखें तथा चारों ओर से असंख्य रूपों को देख रहा हूँ, हे विश्वरूप! न तो मैं आपका अन्त, न मध्य और न आदि को ही देख पा रहा हूँ। (१६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।<br />
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥ (१७)</span></div><br />
भावार्थ : मैं आपको चारों ओर से मुकुट पहने हुए, गदा धारण किये हुए और चक्र सहित अपार तेज से प्रकाशित देख रहा हूँ, और आपके रूप को सभी ओर से अग्नि के समान जलता हुआ, सूर्य के समान चकाचौंध करने वाले प्रकाश को कठिनता से देख पा रहा हूँ। (१७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।<br />
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥ (१८)</span></div><br />
भावार्थ : हे भगवन! आप ही जानने योग्य परब्रह्म परमात्मा हैं, आप ही इस जगत के परम-आधार हैं, आप ही अविनाशी सनातन धर्म के पालक हैं और मेरी समझ से आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। (१८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।<br />
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥ (१९)</span></div><br />
भावार्थ : आप अनादि है, अनन्त है और मध्य-रहित हैं, आपकी महिमा अनन्त है, आपकी असंख्य भुजाएँ है, चन्द्र और सूर्य आपकी आँखें है, मैं आपके मुख से जलती हुई अग्नि के निकलने वाले तेज के कारण इस संसार को तपते हुए देख रहा हूँ। (१९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।<br />
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदंलोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥ (२०)</span></div><br />
भावार्थ : हे महापुरूष! सम्पूर्ण आकाश से लेकर पृथ्वी तक के बीच केवल आप ही अकेले सभी दिशाओं में व्याप्त हैं और आपके इस भयंकर आश्चर्यजनक रूप को देखकर तीनों लोक भयभीत हो रहे हैं। (२०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।<br />
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥ (२१)</span></div><br />
भावार्थ : सभी देवों के समूह आप में प्रवेश कर रहे हैं उनमें से कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपका गुणगान कर रहे हैं, और महर्षिगण और सिद्धों के समूह 'कल्याण हो' इस प्रकार कहकर उत्तम वैदिक स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं। (२१)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।<br />
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥ (२२)</span></div><br />
भावार्थ : शिव के सभी रूप, सभी आदित्यगण, सभी वसु, सभी साध्यगण, सम्पूर्ण विश्व के देवता, दोनों अश्विनी कुमार तथा समस्त मरुतगण और पितरों का समूह, सभी गंधर्व, सभी यक्ष, समस्त राक्षस और सिद्धों के समूह वह सभी आश्चर्यचकित होकर आपको देख रहे हैं। (२२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रंमहाबाहो बहुबाहूरूपादम् ।<br />
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालंदृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥ (२३)</span></div><br />
भावार्थ : हे महाबाहु! आपके अनेकों मुख, आँखें, अनेको हाथ, जंघा, पैरों, अनेकों पेट और अनेक दाँतों के कारण विराट रूप को देखकर सभी लोक व्याकुल हो रहे हैं और उन्ही की तरह मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ। (२३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णंव्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।<br />
दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥ (२४)</span></div><br />
भावार्थ : हे विष्णो! आकाश को स्पर्श करता हुआ, अनेको प्रकाशमान रंगो से युक्त मुख को फैलाये हुए और आपकी चमकती हुई बड़ी-बड़ी आँखों को देखकर मेरा मन भयभीत हो रहा है, मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ और न ही शान्ति को प्राप्त कर पा रहा हूँ। (२४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानिदृष्टैव कालानलसन्निभानि ।<br />
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ (२५)</span></div><br />
भावार्थ : इस प्रकार दाँतों के कारण विकराल और प्रलयंकारी की अग्नि के समान आपके मुखों को देखकर मैं आपकी न तो कोई दिशा को जान पा रहा हूँ और न ही सुख पा रहा हूँ, इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप मुझ पर प्रसन्न हों। (२५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः ।<br />
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥ (२६)<br />
<br />
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।<br />
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गै ॥ (२७)</span></div><br />
भावार्थ : धृतराष्ट्र के सभी पुत्र अपने समस्त सहायक वीर राजाओं के सहित तथा पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, सूत पुत्र कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धा भी आपके भयानक दाँतों वाले विकराल मुख में तेजी से प्रवेश कर रहे हैं, और उनमें से कुछ तो दाँतों के दोनों शिरों के बीच में फ़ंसकर चूर्ण होते हुए दिखाई दे रहे हैं। (२६-२७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।<br />
तथा तवामी नरलोकवीराविशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥ (२८)</span></div><br />
भावार्थ : जिस प्रकार नदियों की अनेकों जल धारायें बड़े वेग से समुद्र की ओर दौड़तीं हुयी प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार सभी मनुष्य लोक के वीर योद्धा भी आपके आग उगलते हुए मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। (२८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।<br />
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥ (२९)</span></div><br />
भावार्थ : जिस प्रकार पतंगे अपने विनाश के लिये जलती हुयी अग्नि में बड़ी तेजी से प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार यह सभी लोग भी अपने विनाश के लिए बहुत तेजी से आपके मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। (२९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ।<br />
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रंभासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥ (३०)</span></div><br />
भावार्थ : हे विश्वव्यापी भगवान! आप उन समस्त लोगों को जलते हुए सभी मुखों द्वारा निगलते हुए सभी ओर से चाट रहे हैं, और आपके भयंकर तेज प्रकाश की किरणें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आच्छादित करके झुलसा रहीं है। (३०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">आख्याहि मे को भवानुग्ररूपोनमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।<br />
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यंन हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥ (३१)</span></div><br />
भावार्थ : हे सभी देवताओं में श्रेष्ठ! कृपा करके आप मुझे बतलाइए कि आप इतने भयानक रूप वाले कौन हैं? मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आप मुझ पर प्रसन्न हों, आप ही निश्चित रूप से आदि भगवान हैं, मैं आपको विशेष रूप से जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपके स्वभाव को नहीं जानता हूँ। (३१)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (भगवान द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन)</b></span><b><br />
</b><br />
श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।<br />
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥ (३२)</span></div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - मैं इस सम्पूर्ण संसार का नष्ट करने वाला महाकाल हूँ, इस समय इन समस्त प्राणीयों का नाश करने के लिए लगा हुआ हूँ, यहाँ स्थित सभी विपक्षी पक्ष के योद्धा तेरे युद्ध न करने पर भी भविष्य में नही रहेंगे। (३२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।<br />
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ (३३)</span></div><br />
भावार्थ : हे सव्यसाची! इसलिये तू यश को प्राप्त करने के लिये युद्ध करने के लिये खडा़ हो और शत्रुओं को जीतकर सुख सम्पन्न राज्य का भोग कर, यह सभी पहले ही मेरे ही द्वारा मारे जा चुके हैं, तू तो युद्ध में केवल निमित्त बना रहेगा। (३३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।<br />
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥ (३४)</span></div><br />
भावार्थ : द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और भी अन्य अनेक मेरे द्वारा मारे हुए इन महान योद्धाओं से तू बिना किसी भय से विचलित हुए युद्ध कर, इस युद्ध में तू ही निश्चित रूप से शत्रुओं को जीतेगा। (३४)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (भययुक्त अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति)</b></span><b><br />
</b><br />
संजय उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।<br />
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥ (३५)</span></div><br />
भावार्थ : संजय ने कहा - भगवान के इन वचनों को सुनकर अर्जुन ने हाथ जोड़कर बारम्बार नमस्कार किया, और फ़िर अत्यन्त भय से कांपता हुआ प्रणाम करके अवरुद्ध स्वर से भगवान श्रीकृष्ण से बोला। (३५)<br />
<br />
<div style="text-align: center;">अर्जुन उवाच</div><div align="center"><span style="color: #3333ff;">स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।<br />
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा: ॥ (३६)</span></div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे अन्तर्यामी प्रभु! यह उचित ही है कि आपके नाम के कीर्तन से सम्पूर्ण संसार अत्यन्त हर्षित होकर आपके प्रति अनुरक्त हो रहा है तथा आसुरी स्वभाव के प्राणी आपके भय के कारण इधर-उधर भाग रहे हैं और सभी सिद्ध पुरुष आपको नमस्कार कर रहे हैं। (३६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।<br />
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥ (३७)</span></div><br />
भावार्थ : हे महात्मा! यह सभी श्रेष्ठजन आपको नमस्कार क्यों न करें क्योंकि आप ही ब्रह्मा को भी उत्पन्न करने वाले हैं, हे अनन्त! हे देवादिदेव! हे जगत के आश्रय! आप अविनाशी, समस्त कारणों के मूल कारण, और आप ही परमतत्व है। (३७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।<br />
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥ (३८)</span></div><br />
भावार्थ : आप आदि देव सनातन पुरुष हैं, आप इस संसार के परम आश्रय हैं, आप जानने योग्य हैं तथा आप ही जानने वाले हैं, आप ही परम धाम हैं और आप के ही द्वारा यह संसार अनन्त रूपों में व्याप्त हैं। (३८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।<br />
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ (३९)</span></div><br />
भावार्थ : आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा तथा सभी प्राणीयों के पिता ब्रह्मा भी है और आप ही ब्रह्मा के पिता भी हैं, आपको बारम्बार नमस्कार! आपको हजारों बार नमस्कार! नमस्कार हो!! फिर भी आपको बार-बार नमस्कार! करता हूँ। (३९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।<br />
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥ (४०)</span></div><br />
भावार्थ : हे असीम शक्तिमान! मैं आपको आगे से, पीछे से और सभी ओर से ही नमस्कार करता हूँ क्योंकि आप ही सब कुछ है, आप अनन्त पराक्रम के स्वामी है, आप ही से समस्त संसार व्याप्त हैं, अत: आप ही सब कुछ हैं। (४०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।<br />
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥ (४१)<br />
<br />
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।<br />
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥ (४२)</span></div><br />
भावार्थ : आपको अपना मित्र मानकर मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण!, हे यादव! हे सखा! इस प्रकार आपकी महिमा को जाने बिना मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ कहा है, हे अच्युत! यही नही हँसी-मजाक में आराम करते हुए, सोते हुए, वैठते हुए या भोजन करते हुए, कभी अकेले में या कभी मित्रों के सामने मैंने आपका जो अनादर किया हैं उन सभी अपराधों के लिये मैं क्षमा माँगता हूँ। (४१,४२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।<br />
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥ (४३)</span></div><br />
भावार्थ : आप इस चल और अचल जगत के पिता और आप ही इस जगत में पूज्यनीय आध्यात्मिक गुरु हैं, हे अचिन्त्य शक्ति वाले प्रभु! तीनों लोकों में अन्य न तो कोई आपके समान हो सकता हैं और न ही कोई आपसे बढकर हो सकता है। (४३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् ।<br />
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥ (४४)</span></div><br />
भावार्थ : अत: मैं समस्त जीवों के पूज्यनीय भगवान के चरणों में गिरकर साष्टाँग प्रणाम करके आपकी कृपा के लिए प्रार्थना करता हूँ, हे मेरे प्रभु! जिस प्रकार पिता अपने पुत्र के अपराधों को, मित्र अपने मित्र के अपराधों को और प्रेमी अपनी प्रिया के अपराधों को सहन कर लेता हैं उसी प्रकार आप मेरे अपराधों को सहन करने की कृपा करें। (४४)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (अर्जुन द्वारा चतुर्भुज रूप के लिए प्रार्थना)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।<br />
तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ (४५)</span></div><br />
भावार्थ : पहले कभी न देखे गये आपके इस रूप को देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही मेरा मन भय के कारण विचलित भी हो रहा है, इसलिए हे देवताओं के स्वामी! हे जगत के आश्रय! आप मुझ पर प्रसन्न होकर अपने पुरूषोत्तम रूप को मुझे दिखलाइये। (४५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।<br />
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेनसहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥ (४६)</span></div><br />
भावार्थ : हे हजारों भुजाओं वाले विराट स्वरूप भगवान! मैं आपके मुकुट धारण किए हुए और हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म लिए रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, कृपा करके आप चतुर्भुज रूप में प्रकट हों। (४६)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (भगवान द्वारा विश्वरूप के दर्शन की महिमा और चतुर्भुज दर्शन)</b></span><b><br />
</b><br />
श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।<br />
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥ (४७)</span></div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के प्रभाव से तुझे अपना दिव्य विश्वरूप दिखाया है, मेरे इस तेजोमय, अनन्त विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। (४७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।<br />
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥ (४८)</span></div><br />
भावार्थ : हे कुरुश्रेष्ठ! मेरे इस विश्वरूप को मनुष्य लोक में न तो यज्ञों के द्वारा, न वेदों के अध्ययन द्वारा, न दान के द्वारा, न पुण्य कर्मों के द्वारा और न कठिन तपस्या द्वारा ही देखा जाना संभव है, मेरे इस विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। (४८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मा ते व्यथा मा च विमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।<br />
व्यतेपभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वंतदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥ (४९)</span></div><br />
भावार्थ : हे मेरे परम-भक्त! तू मेरे इस विकराल रूप को देखकर न तो अधिक विचलित हो, और न ही मोहग्रस्त हो, अब तू पुन: सभी चिन्ताओं से मुक्त होकर प्रसन्न-चित्त से मेरे इस चतुर्भुज रूप को देख। (४९)<br />
<br />
<div align="center">संजय उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।<br />
आश्वासयामास च भीतमेनंभूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥ (५०)</span></div><br />
भावार्थ : संजय ने कहा - वासुदेव भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से इस प्रकार कहने के बाद अपना विष्णु स्वरूप चतुर्भुज रूप को प्रकट किया और फिर दो भुजाओं वाले मनुष्य स्वरूप को प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बँधाया। (५०)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b> (चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता और अनन्य भक्ति द्वारा सुलभता)</b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।<br />
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥ (५१)</span></div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे जनार्दन! आपके इस अत्यन्त सुन्दर मनुष्य रूप को देखकर अब मैं स्थिर चित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ। (५१)<br />
<br />
<div align="center">श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।<br />
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥ (५२)</span></div><br />
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - मेरा जो चतुर्भज रूप तुमने देखा है, उसे देख पाना अत्यन्त दुर्लभ है देवता भी इस शाश्वत रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं। (५२)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।<br />
शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥ (५३)</span></div><br />
भावार्थ : मेरे इस चतुर्भुज रूप को जिसको तेरे द्वारा देखा गया है इस रूप को न वेदों के अध्यन से, न तपस्या से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जाना संभव है। (५३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।<br />
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥ (५४)</span></div><br />
भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही मेरा साक्षात दर्शन किया जा सकता है, वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है और इसी विधि से मुझमें प्रवेश भी पाया जा सकता है। (५४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।<br />
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥ (५५)</span></div><br />
भावार्थ : हे पाण्डुपुत्र! जो मनुष्य केवल मेरी शरण होकर मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करता है, मेरी भक्ति में स्थित रहता है, सभी कामनाओं से मुक्त रहता है और समस्त प्राणियों से मैत्रीभाव रखता है, वह मनुष्य निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करता है। (५५)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः॥</span><br />
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में विश्वरूप दर्शन-योग नाम का ग्यारहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ॥<br />
<br />
<span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-72510782779830259002010-03-31T10:19:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.153+05:30अध्याय बारह का माहात्म्य<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s1600/Gita+Mahatm.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmPtKe2IFCjz92e_1gc70cIUuWMVrl-hnUbetw6fUToQw4iGAqgF_7bQLMs5qBJLmEMa5OOvZ0yX6azf57ua8zF_Pyuk_Dy-PhIthNqGUKveNKQlB-ZZf8HZmv51B6XbPwXANjoTofFhIb/s640/Gita+Mahatm.jpg" width="640" /></a></div><br />
<strong>श्रीमहादेवजी कहते हैं:–</strong> पार्वती! दक्षिण दिशा में कोल्हापुर नामक एक नगर है, जो सब प्रकार के सुखों का आधार, सिद्ध-महात्माओं का निवास स्थान तथा सिद्धि प्राप्ति का क्षेत्र है, वह भगवती लक्ष्मी की प्रधान पीठ है, वह पोराणिक प्रसिद्ध तीर्थ भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है, वहाँ करोड़ो तीर्थ और शिवलिंग हैं, रुद्रगया भी वहाँ है, वह विशाल नगर लोगों में बहुत विख्यात है। <br />
<br />
एक दिन कोई युवक पुरुष नगर में आया, वह कहीं का राजकुमार था, उसके शरीर का रंग गोरा, नेत्र सुन्दर, कंधे मोटे, छाती चौड़ी तथा भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं, नगर में प्रवेश करके सब ओर महलों की शोभा निहारता हुआ वह देवेश्वरी महालक्ष्मी के दर्शन करने की इच्छा से मणिकण्ठ तीर्थ में गया और वहाँ स्नान करके उसने पितरों का तर्पण किया, फिर महामाया महालक्ष्मी जी को प्रणाम करके भक्ति पूर्वक स्तुति करना आरम्भ किया।<br />
<br />
<strong>राजकुमार बोलाः-</strong> जिसके हृदय में असीम दया भरी हुई है, जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करती है तथा अपने कटाक्ष मात्र से सारे जगत की रचना, पालन और संहार करती है, उस जगत की माता महालक्ष्मी की जय हो, जिस शक्ति के सहारे उसी के आदेश के अनुसार ब्रह्मा सृष्टि रचते हैं, भगवान विष्णु जगत का पालन करते हैं तथा भगवान शिव अखिल विश्व का संहार करते हैं, उस सृष्टि पालन और संहार की शक्ति से सम्पन्न भगवती का मैं भजन करता हूँ।<br />
<br />
योगीजन तुम्हारे चरणकमलों का चिन्तन करते रहते हैं, तुम अपनी स्वाभाविक सत्ता से ही हमारे समस्त इन्द्रिय विषयों को जानती हो, तुम्हीं कल्पनाओं को तथा उसका संकल्प करने वाले मन को उत्पन्न करती हो, इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति ये सब तुम्हारे ही रूप हैं, तुम परमज्ञान रूपी हो तुम्हारा स्वरूप निष्काम, निर्मल, नित्य, निराकार, निरंजन, अनन्त, तथा निरामय है, तुम्हारी महिमा का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है? <br />
<br />
जो षट्चक्रों का भेदन करके अन्तःकरण के बारह स्थानों में विहार करती हैं, अनाहत, ध्वनि, बिन्दु, नाद और कला ये जिसके स्वरूप हैं, उस माता महालक्ष्मी को मैं प्रणाम करता हूँ, हे माता! तुम अपने मुख रूपी पूर्ण चन्द्रमा से प्रकट होने वाली अमृत की वर्षा करती हो, तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी नामक वाणी हो, मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ, तुम जगत की रक्षा के लिए अनेक रूप धारण किया करती हो,तुम्हीं ब्राह्मी, वैष्णवी, तथा माहेश्वरी शक्ति हो, वाराही, महालक्ष्मी, नरसिंही, कौमारी, चण्डिका, जगत को पवित्र करने वाली लक्ष्मी, सावित्री, चन्द्रकला तथा रोहिणी भी तुम्हीं हो, हे परमेश्वरी! तुम भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिए कल्पलता के समान हो, कृपा करके मुझ पर प्रसन्न हो।<br />
<br />
इस प्रकार स्तुति करने पर भगवती महालक्ष्मी अपना साक्षात् स्वरूप धारण करके बोलीं - 'राजकुमार! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम कोई वरदान माँगो।'<br />
<br />
<strong>राजपुत्र बोलाः-</strong> माँ! मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध नामक महान यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे, वे दैवयोग से रोगग्रस्त होकर स्वर्गवासी हो गये, इसी बीच में बँधे हुए मेरे यज्ञ सम्बन्धी घोड़े को, जो समूची पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटा था, किसी ने रात्रि में बँधन काट कर कहीं अन्यत्र पहुँचा दिया, उसकी खोज में मैंने कुछ लोगों को भेजा था, किन्तु वे कहीं भी उसका पता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये हैं, तब मैं गुरु की आज्ञा लेकर तुम्हारी शरण में आया हूँ, हे देवी! यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे यज्ञ का घोड़ा मुझे मिल जाये, जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके, तभी मैं अपने पिता का ऋण उतार सकूँगा, शरणागतों पर दया करने वाली जगजननी माता लक्ष्मी! जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके।<br />
<br />
<strong>भगवती लक्ष्मी ने कहाः-</strong> राजकुमार! मेरे मन्दिर के दरवाजे पर एक ब्राह्मण रहते हैं, जो लोगों में सिद्धसमाधि के नाम से विख्यात हैं, वह मेरी आज्ञा से तुम्हारा सब काम पूरा कर देंगे, महालक्ष्मी के इस प्रकार कहने पर राजकुमार उस स्थान पर आया, जहाँ सिद्धसमाधि रहते थे, उनके चरणों में प्रणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।<br />
<br />
<strong>तब ब्राह्मण ने कहाः-</strong> 'तुम्हें माता जी ने यहाँ भेजा है, अच्छा, देखो, अब मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करता हूँ,' इस प्रकार कहकर मन्त्र द्वारा ब्राह्मण ने सब देवताओं को पुकारा, राजकुमार ने देखा, उस समय सब देवता हाथ जोड़े थर-थर काँपते हुए वहाँ उपस्थित हो गये, तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मण ने समस्त देवताओं से कहा 'देवगण! इस राजकुमार का अश्व, जो यज्ञ के लिए निश्चित हो चुका था, रात में देवराज इन्द्र ने चुराकर अन्यत्र पहुँचा दिया है, उसे शीघ्र ले आओ।'<br />
<br />
तब देवताओं ने ब्राह्मण के कहने से यज्ञ का घोड़ा लाकर दे दिया, इसके बाद उन्होंने उन्हे जाने की आज्ञा दी, देवताओं का आकर्षण देखकर तथा खोये हुए अश्व को पाकर राजकुमार ने ब्राह्मण के चरणों में प्रणाम करके कहाः 'महर्षि! आपका यह सामर्थ्य आश्चर्यजनक है, आप ही ऐसा कार्य कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं, हे ब्रह्मन्! मेरी प्रार्थना सुनिये, मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ करके दैवयोग से मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं, अभी तक उनका शरीर तपाये हुए तेल में सुखाकर मैंने रख छोड़ा है, आप उन्हें पुनः जीवित कर दीजिए।'<br />
<br />
<strong>ब्राह्मण ने मुस्कराकर कहाः-</strong> 'चलो, वहाँ यज्ञ मण्डप में तुम्हारे पिता मौजूद हैं,' तब सिद्धसमाधि ने राजकुमार के साथ वहाँ जाकर जल अभिमन्त्रित किया और उसे शव के मस्तक पर रखा, उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे फिर उन्होंने ब्राह्मण को देखकर पूछाः 'धर्मस्वरूप! आप कौन हैं?' तब राजकुमार ने महाराज से पहले का सारा हाल कह सुनाया, राजा ने अपने को पुनः जीवनदान देने वाले ब्राह्मण को नमस्कार किया। <br />
<br />
<strong>राजा ने पूछाः-</strong> '' हे ब्राह्मण! किस पुण्य से आपको यह अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई है?" <br />
<br />
<strong>ब्राह्मण ने मधुर वाणी में कहाः-</strong> 'हे राजन! मैं प्रतिदिन आलस्यरहित होकर गीता के बारहवें अध्याय का जप करता हूँ, उसी से मुझे यह शक्ति मिली है, जिससे तुम्हें जीवन प्राप्त हुआ है,' यह सुनकर ब्राह्मणों सहित राजा ने उन महर्षि से उन से गीता के बारहवें अध्याय का अध्ययन किया, उसके माहात्म्य से उन सबकी सद्गति हो गयी। <br />
<br />
<strong>श्री महादेवजी ने कहा:-</strong> हे प्रिय! इसी प्रकार अनेक जीव भी गीता के बाहरवें अध्याय का पाठ करके परम मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं।<br />
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<div align="center"><span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-771241143052132546.post-52683639819501157562010-03-20T10:23:00.000+05:302013-01-15T11:17:01.138+05:30अध्याय बारह - भक्ति-योग<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUovyjD0912GRU9IOFZIyngqhRLEmquhuofgxTu3RFHVZTbg8gOSVjezQyHwZ17NUAw4pUCjy8CGsFyH4lq9YIxwF9vkcSAo2a8HifRFV-53tyBle3OJEz2WhWVzJk8FlShXOvriZTGkoh/s1600/Gita+(12).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="480" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUovyjD0912GRU9IOFZIyngqhRLEmquhuofgxTu3RFHVZTbg8gOSVjezQyHwZ17NUAw4pUCjy8CGsFyH4lq9YIxwF9vkcSAo2a8HifRFV-53tyBle3OJEz2WhWVzJk8FlShXOvriZTGkoh/s640/Gita+(12).jpg" width="640" /></a></div><br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(साकार और निराकार रूप से भगवत्प्राप्ति)</b></span><b><br />
</b><br />
अर्जुन उवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।<br />
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥ (१)</span></div><br />
भावार्थ : अर्जुन ने पूछा - हे भगवन! जो विधि आपने बतायी है उसी विधि के अनुसार अनन्य भक्ति से आपकी शरण होकर आपके सगुण-साकार रूप की निरन्तर पूजा-आराधना करते हैं, अन्य जो आपकी शरण न होकर अपने भरोसे आपके निर्गुण-निराकार रूप की पूजा-आराधना करते हैं, इन दोनों प्रकार के योगीयों में किसे अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माना जाय? (१)<br />
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<div align="center">श्रीभगवानुवाच<br />
<span style="color: #3333ff;">मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।<br />
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥ (२)</span></div><br />
भावार्थ : श्री भगवान कहा - हे अर्जुन! जो मनुष्य मुझमें अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण-साकार रूप की पूजा में लगे रहते हैं, और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे दिव्य स्वरूप की आराधना करते हैं वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं। (२)<br />
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<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।<br />
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ (३)<br />
<br />
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।<br />
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ (४)</span></div><br />
भावार्थ : लेकिन जो मनुष्य मन-बुद्धि के चिन्तन से परे परमात्मा के अविनाशी, सर्वव्यापी, अकल्पनीय, निराकार, अचल स्थित स्वरूप की उपासना करते हैं, वह मनुष्य भी अपनी सभी इन्द्रियों को वश में करके, सभी परिस्थितियों में समान भाव से और सभी प्राणीयों के हित में लगे रहकर मुझे ही प्राप्त होते हैं। (३,४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।<br />
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥ (५)</span></div><br />
भावार्थ : अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त मन वाले मनुष्यों को परमात्मा की प्राप्ति अत्यधिक कष्ट पूर्ण होती है क्योंकि जब तक शरीर द्वारा कर्तापन का भाव रहता है तब तक अव्यक्त परमात्मा की प्राप्ति दुखप्रद होती है। (५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।<br />
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ (६)<br />
<br />
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।<br />
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ (७)</span></div><br />
भावार्थ : परन्तु हे अर्जुन! जो मनुष्य अपने सभी कर्मों को मुझे अर्पित करके मेरी शरण होकर अनन्य भाव से भक्ति-योग में स्थित होकर निरन्तर मेरा चिन्तन करते हुए मेरी आराधना करते हैं। मुझमें स्थिर मन वाले उन मनुष्यों का मैं जन्म-मृत्यु रूपी संसार-सागर से अति-शीघ्र ही उद्धार करने वाला होता हूँ। (६,७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।<br />
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ (८)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! तू अपने मन को मुझमें ही स्थिर कर और मुझमें ही अपनी बुद्धि को लगा, इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझमें ही सदैव निवास करेगा, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। (८)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम् ।<br />
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥ (९)</span></div><br />
भावार्थ : हे अर्जुन! यदि तू अपने मन को मुझमें स्थिर नही कर सकता है, तो भक्ति-योग के अभ्यास द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न कर। (९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।<br />
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ (१०)</span></div><br />
भावार्थ : यदि तू भक्ति-योग का अभ्यास भी नही कर सकता है, तो केवल मेरे लिये कर्म करने का प्रयत्न कर, इस प्रकार तू मेरे लिये कर्मों को करता हुआ मेरी प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को ही प्राप्त करेगा। (१०)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।<br />
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥ (११)</span></div><br />
भावार्थ : यदि तू मेरे लिये कर्म भी नही कर सकता है तो मुझ पर आश्रित होकर सभी कर्मों के फलों का त्याग करके समर्पण के साथ आत्म-स्थित महापुरुष की शरण ग्रहण कर, उनकी प्रेरणा से कर्म स्वत: ही होने लगेगा। (११)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।<br />
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥ (१२)</span></div><br />
भावार्थ : बिना समझे मन को स्थिर करने के अभ्यास से ज्ञान का अनुशीलन करना श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ समझा जाता है और ध्यान से सभी कर्मों के फलों का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि ऎसे त्याग से शीघ्र ही परम-शान्ति की प्राप्त होती है। (१२)<br />
<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #cc0000;"><b>(भक्ति में स्थित मनुष्य के लक्षण)</b></span><b><br />
</b><br />
<span style="color: #3333ff;">अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।<br />
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ (१३)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य किसी से द्वेष नही करता है, सभी प्राणीयों के प्रति मित्र-भाव रखता है, सभी जीवों के प्रति दया-भाव रखने वाला है, ममता से मुक्त, मिथ्या अहंकार से मुक्त, सुख और दुःख को समान समझने वाला, और सभी के अपराधों को क्षमा करने वाला है। (१३)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः ।<br />
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ (१४)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य निरन्तर भक्ति-भाव में स्थिर रहकर सदैव प्रसन्न रहता है, दृढ़ निश्चय के साथ मन सहित इन्द्रियों को वश किये रहता है, और मन एवं बुद्धि को मुझे अर्पित किए हुए रहता है ऎसा भक्त मुझे प्रिय होता है। (१४)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।<br />
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ (१५)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य न तो किसी के मन को विचलित करता है और न ही अन्य किसी के द्वारा विचलित होता है, जो हर्ष-संताप और भय-चिन्ताओं से मुक्त है ऎसा भक्त भी मुझे प्रिय होता है। (१५)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।<br />
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ (१६)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य किसी भी प्रकार की इच्छा नही करता है, जो शुद्ध मन से मेरी आराधना में स्थित है, जो सभी कष्टों के प्रति उदासीन रहता है और जो सभी कर्मों को मुझे अर्पण करता है ऎसा भक्त मुझे प्रिय होता है। (१६)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।<br />
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ (१७)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य न तो कभी हर्षित होता है, न ही कभी शोक करता है, न ही कभी पछताता है और न ही कामना करता है, जो शुभ और अशुभ सभी कर्म-फ़लों को मुझे अर्पित करता है ऎसी भक्ति में स्थित भक्त मुझे प्रिय होता है। (१७)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।<br />
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ (१८)</span></div><br />
भावार्थ : जो मनुष्य शत्रु और मित्र में, मान तथा अपमान में समान भाव में स्थित रहता है, जो सर्दी और गर्मी में, सुख तथा दुःख आदि द्वंद्वों में भी समान भाव में स्थित रहता है और जो दूषित संगति से मुक्त रहता है। (१८)<br />
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<div align="center"><span style="color: #3333ff;">तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।<br />
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥ (१९)</span></div><br />
भावार्थ : जो निंदा और स्तुति को समान समझता है, जिसकी मन सहित सभी इन्द्रियाँ शान्त है, जो हर प्रकार की परिस्थिति में सदैव संतुष्ट रहता है और जिसे अपने निवास स्थान में कोई आसक्ति नही होती है ऎसा स्थिर-बुद्धि के साथ भक्ति में स्थित मनुष्य मुझे प्रिय होता है। (१९)<br />
<br />
<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।<br />
श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥ (२०)</span></div><br />
भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य इस धर्म रूपी अमृत का ठीक उसी प्रकार से पालन करते हैं जैसा मेरे द्वारा कहा गया है और जो पूर्ण श्रद्धा के साथ मेरी शरण ग्रहण किये रहते हैं, ऎसी भक्ति में स्थित भक्त मुझको अत्यधिक प्रिय होता हैं। (२०)<br />
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<div align="center"><span style="color: #3333ff;">ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥</span><br />
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में भक्ति-योग नाम का बारहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥<br />
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<span style="color: #006600;"><b>॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥</b></span></div>Ravi Kant Sharmahttp://www.blogger.com/profile/18111966155666571939noreply@blogger.com