अध्याय सत्रह का माहात्म्य


श्रीमहादेवजी कहते हैं:- पार्वती! अब सत्रहवें अध्याय की अनन्त महिमा श्रवण करो, राजा खड्गबाहू के पुत्र का दुःशासन नाम का एक नौकर था, वह दुष्ट बुद्धि का मनुष्य था, एक बार वह राजकुमारों के साथ बहुत धन की बाजी लगाकर हाथी पर चढ़ा और कुछ ही कदम आगे जाने पर लोगों के मना करने पर भी वह मूढ हाथी के प्रति जोर-जोर से कठोर शब्द करने लगा।

उसकी आवाज सुनकर हाथी क्रोध से अंधा हो गया और दुःशासन को गिराकर काल के समान निरंकुश हाथी ने क्रोध से भरकर उसे ऊपर की ओर फेंक दिया, ऊपर से गिरते ही उसके प्राण निकल गये, इस प्रकार कालवश मृत्यु को प्राप्त होने के बाद उसे हाथी की योनि मिली और सिंहलद्वीप के महाराज के यहाँ उसने अपना बहुत समय व्यतीत किया।

सिंहलद्वीप के राजा की महाराज खड्गबाहु से बड़ी मैत्री थी, अतः उन्होंने जल के मार्ग से उस हाथी को मित्र की प्रसन्नता के लिए भेज दिया, एक दिन राजा ने कविता से संतुष्ट होकर किसी कवि को पुरस्कार रूप में वह हाथी दे दिया और कवि ने सौ स्वर्ण मुद्राएँ लेकर मालवनरेश को बेच दिया, कुछ समय व्यतीत होने पर वह हाथी यत्न पूर्वक पालित होने पर भी असाध्य ज्वर से ग्रस्त होकर मरणासन्न हो गया।

महावतों ने जब उसे ऐसी शोचनीय अवस्था में देखा तो राजा के पास जाकर हाथी के हित के लिए शीघ्र ही सारा हाल कह सुनाया "महाराज! आपका हाथी अस्वस्थ जान पड़ता है, उसका खाना, पीना और सोना सब छूट गया है, हमारी समझ में नहीं आता इसका क्या कारण है।"

महावतों का बताया हुआ समाचार सुनकर राजा ने हाथी के रोग को पहचान वाले चिकित्सा कुशल मंत्रियों के साथ उस स्थान पर भेजा जहाँ हाथी ज्वरग्रस्त होकर पड़ा था, राजा को देखते ही उसने ज्वर की वेदना को भूलकर संसार को आश्चर्य में डालने वाली वाणी में कहा।

'सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता, राजनीति के समुद्र, शत्रु-समुदाय को परास्त करने वाले तथा भगवान विष्णु के चरणों में अनुराग रखने वाले महाराज! इन औषधियों से क्या लेना है? वैद्यों से भी कुछ लाभ होने वाला नहीं है, दान ओर जप से भी क्या सिद्ध होगा? आप कृपा करके गीता के सत्रहवें अध्याय का पाठ करने वाले किसी ब्राह्मण को बुलवाइये।'

हाथी के कथन के अनुसार राजा ने सब कुछ वैसा ही किया, तदनन्तर गीता-पाठ करने वाले ब्राह्मण ने जब उत्तम जल को अभिमंत्रित करके उसके ऊपर डाला, तब दुःशासन गजयोनि का परित्याग करके मुक्त हो गया, राजा ने दुःशासन को दिव्य विमान पर आरूढ तथा इन्द्र के समान तेजस्वी देखकर पूछा 'पूर्वजन्म में तुम्हारी क्या जाति थी? क्या स्वरूप था? कैसे आचरण थे? और किस कर्म से तुम यहाँ हाथी होकर आये थे? ये सारी बातें मुझे बताओ।'

राजा के इस प्रकार पूछने पर संकट से छूटे हुए दुःशासन ने विमान पर बैठे-ही-बैठे स्थिरता के साथ अपना पूर्वजन्म का उपर्युक्त समाचार यथावत कह सुनाया। तत्पश्चात् नरश्रेष्ठ मालवनरेश ने भी गीता के सत्रहवें अध्याय पाठ करने लगे, इससे थोड़े ही समय में उनकी मुक्ति हो गयी।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥