अठारहवें अध्याय का माहात्म्य


श्रीमहादेवजी कहते हैं:- पार्वती! अब मैं अठारहवें अध्याय के माहात्म्य का वर्णन करता हूँ, परमानन्द को देने वाला अठारहवें अध्याय का यह पावन माहात्म्य जो समस्त वेदों से भी उत्तम है, इसे तुम श्रद्धा-पूर्वक श्रवण करो।

 यह सम्पूर्ण शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ है, संसार के तीनों तापों से मुक्त करने वाला है, सिद्ध पुरुषों के लिए परम रहस्यमय है, अविद्या को सम्पूर्ण नष्ट करने वाला है। इसके निरन्तर पाठ करने वाले को यमदूत स्पर्श भी नहीं करते है, इससे बढ़कर कोई अन्य रहस्यमय उपदेश नहीं है, इसके सम्बन्ध में जो पवित्र उपाख्यान है, उसे भक्ति-भाव से श्रवण करो, इसके श्रवण मात्र से जीव समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

 मेरुगिरि के शिखर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी थी, इसे पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने बनाया था, इस पुरी में देवताओं और सेवकों के साथ इन्द्र देव अपनी पत्नी शची देवी के साथ राज्य किया करते थे। एक दिन इन्द्र देव सुख-पूर्वक बैठे हुए थे, इतने ही में उन्होंने देखा कि भगवान विष्णु के पार्षदों के साथ एक पुरुष वहाँ आ रहा है, इन्द्र देव उस नव-आगन्तुक पुरुष के तेज को सहन न करने के कारण अपने मुकुट सहित रत्न ज़डित सिंहासन से नीचे गिर पड़े।

 यह देख इन्द्र के सेवकों ने उस मुकुट को नव आगन्तुक पुरुष के मस्तक पर आसीन कर दिया और उसे नया इन्द्र देव बना दिया, यह देख दिव्य गीत गाती हुई देवांगनाओं के साथ सभी देवता उनकी आरती उतारने लगे, ऋषियों ने वेद मंत्रों का उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद देने लगे, गन्धर्व मधुर स्वर में मंगलमय गान करने लगे।

 इस नये इन्द्र देव को सौ अश्वमेघ यज्ञ किये बिना ही विभिन्न प्रकार के उत्सवों से सेवित देखकर पूर्व इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ, वह सोचने लगा ‘इसने तो मार्ग में न कभी कोई प्याऊ बनवाई हैं, न कोई कुण्ड-तालाब खुदवाये है और न पथिकों को विश्राम करने के लिये छाया देने वाले वृक्ष ही लगवाये है। अकाल पड़ने पर अन्न दान के द्वारा इसने प्राणियों की सहायता भी नहीं की है, इसके द्वारा तीर्थों में यज्ञों का अनुष्ठान भी नहीं किया गया है फिर इसे यह इन्द्र पद कैसे प्राप्त हुआ?

 इस चिन्ता से व्याकुल होकर पूर्व इन्द्र श्रीभगवान विष्णु से पूछने के लिए प्रेम पूर्वक क्षीर सागर के तट पर गया और वहाँ अकस्मात अपने साम्राज्य से निष्कासित होने का दुःख निवेदन करते हुए बोला:- ‘हे प्रभु! मैंने पूर्व काल में आपकी प्रसन्नता के लिए सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया था, उसी के पुण्य से मुझे इन्द्र पद की प्राप्ति हुई थी, किन्तु इस समय स्वर्ग में मेरे इन्द्र पद पर किसी दूसरे की नियुक्ति कर दी गई है, उसने न तो कभी धर्म का कार्य किया है और न ही यज्ञों का अनुष्ठान किया है तो हे प्रभु फिर उसे मेरे इन्द्र पद की प्राप्ति कैसे हुई है?’

 श्रीभगवान बोलेः इन्द्र! वह श्री मद भगवदगीता के अठारहवें अध्याय में से पाँच श्लोकों का प्रतिदिन पाठ किया करता था, उसी के पुण्य से उसने तुम्हारे इस पद को प्राप्त कर लिया है, गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ समस्त पुण्यों-कर्मों से श्रेष्ठ है, इसी का आश्रय लेकर तुम भी पुनः इन्द्र पद को प्राप्त कर सकते हो। 

 श्रीभगवान के यह वचन सुनकर और इस उत्तम उपाय को जानकर पूर्व इन्द्र एक ब्राहमण का वेष धारण करके गोदावरी के तट पर पहुँच गया, वहाँ उसने कालिका ग्राम नामक उत्तम और पवित्र नगर देखा, जहाँ काल का भी मर्दन करने वाले भगवान कालेश्वर विराजमान हैं, वही गोदावरी तट पर एक धर्मात्मा ब्राह्मण रहते थे, जो बड़े ही दयालु और वेदों के पारंगत विद्वान थे।

 वह ब्राहमण अपने मन को वश में करके प्रतिदिन गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ किया करते थे। उन्हें देखकर पूर्व इन्द्र ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उनके चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम किया, और वह उन ब्राहमण से नित्य अठारहवें अध्याय को सुना करता था, एक दिन अठारहवें आध्याय के श्रवण से अर्जित पुण्य कर्म से उसे श्री भगवान विष्णु की कृपा से भगवान के परम वैकुण्ठ धाम में सायुज्य मुक्ति की प्राप्ति हुई। 

अठारहवें अध्याय के श्रवण मात्र से ही मनुष्य समस्त पापों से छुटकारा पा जाता है। जो पुरुष श्रद्धा-युक्त होकर इसका नित्य श्रवण या पाठन करता है, ऎसा व्यक्ति समस्त यज्ञों के फलों को प्राप्त कर अन्त में श्रीभगवान की परम कृपा को प्राप्त करता है।

 ॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥