अध्याय तेरह का माहात्म्य


श्रीमहादेवजी कहते हैं:– पार्वती ! अब तेरहवें अध्याय की महिमा का वर्णन सुनो, उसको सुनने से तुम बहुत प्रसन्न हो जाओगी, दक्षिण दिशा में तुंगभद्रा नाम की एक बहुत बड़ी नदी है, उसके किनारे हरिहरपुर नामक रमणीय नगर बसा हुआ है, वहाँ हरिहर नाम से साक्षात् भगवान शिवजी विराजमान हैं, जिनके दर्शनमात्र से परम कल्याण की प्राप्ति होती है।

हरिहरपुर में हरि दीक्षित नामक एक श्रोत्रिय ब्राह्मण रहते थे, जो तपस्या और स्वाध्याय में संलग्न तथा वेदों के परम-विद्वान थे, उनकी एक स्त्री थी, जिसे लोग दुराचार कहकर पुकारते थे, इस नाम के अनुसार ही उसके कर्म भी थे, वह सदा पति को अपशब्द कहती थी, उसने कभी भी उनके साथ शयन नहीं किया, पति से सम्बन्ध रखने वाले जितने लोग घर पर आते, उन सबको डाँट-फ़ट्कार के भगा देती थी और स्वयं व्यभिचारियों के साथ रमण किया करती थी।

एक दिन नगर को इधर-उधर आते-जाते हुए लोगों से भरा देख उसने निर्जन तथा दुर्गम वन में अपने लिए संकेत स्थान बना लिया, एक समय रात में किसी कामी को न पाकर वह घर के किवाड़ खोल नगर से बाहर संकेत-स्थान पर चली गयी, वह काम के वशीभूत होकर एक-एक कुंज में तथा प्रत्येक वृक्ष के नीचे जा-जाकर किसी प्रियतम की खोज करने लगी, किन्तु उन सभी स्थानों पर उसका परिश्रम व्यर्थ गया, उसे प्रियतम का दर्शन नहीं हुआ, तब उस वन में नाना प्रकार की बातें कहकर विलाप करने लगी।

चारों दिशाओं में घूम-घूमकर विलाप करती हुई उस स्त्री की आवाज सुनकर कोई सोया हुआ बाघ जाग उठा और उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ वह रो रही थी, उधर वह भी उसे आते देख किसी प्रेमी आशंका से उसके सामने खड़ी होने के लिए ओट से बाहर निकल आयी, उस समय व्याघ्र ने आकर उसे नाखुनों के प्रहार से पृथ्वी पर गिरा दिया, इस अवस्था में भी वह कठोर वाणी में चिल्लाती हुई पूछ बैठी 'अरे बाघ! तू किसलिए मुझे मारना चाहता है? पहले इन सारी बातों को बता दे, फिर मुझे मारना।'

उसकी यह बात सुनकर व्याघ्र हँसता हुआ बोला 'दक्षिण देश में मलापहा नामक एक नदी है, उसके तट पर मुनिपर्णा नगरी बसी हुई है, वहाँ पँचलिंग नाम से प्रसिद्ध साक्षात् भगवान शंकर निवास करते हैं, उसी नगरी में मैं ब्राह्मण के रूप में रहता था, नदी के किनारे अकेला बैठा रहता और जो यज्ञ के अधिकारी नहीं हैं, उन लोगों से भी यज्ञ कराकर उनका अन्न खाया करता था, इतना ही नहीं, धन के लोभ से मैं सदा अपने वेदपाठ के फल को बेचा करता था।

मेरा लोभ यहाँ तक बढ़ गया था कि अन्य भिक्षुओं को गालियाँ देकर हटा देता और स्वयं दूसरो को नहीं देने योग्य धन भी बिना दिये ही हमेशा ले लिया करता था, ऋण लेने के बहाने मैं सब लोगों को छला करता था, समय व्यतीत होने पर मैं बूढ़ा हो गया, मेरे बाल सफेद हो गये, आँखों से सूझता न था और मुँह के सारे दाँत गिर गये, इतने पर भी मेरी दान लेने की आदत नहीं छूटी, पर्व आने पर दान के लोभ से मैं हाथ में कुश लिए तीर्थ के समीप चला जाया करता था।

तत्पश्चात् जब मेरे सारे अंग शिथिल हो गये, तब एक बार मैं कुछ धूर्त ब्राह्मणों के घर पर माँगने-खाने के लिए गया, उसी समय मेरे पैर में कुत्ते ने काट लिया, तब मैं मूर्च्छित होकर क्षणभर में पृथ्वी पर गिर पड़ा, मेरे प्राण निकल गये, उसके बाद मैं इसी व्याघ्र योनि में उत्पन्न हुआ, तब से इस दुर्गम वन में रहता हूँ तथा अपने पूर्व पापों को याद करके कभी धर्मिष्ठ महात्मा, यति, साधु पुरुष तथा सती स्त्रियों को नहीं खाता, पापी-दुराचारी तथा कुलटा स्त्रियों को ही मैं अपना भक्ष्य बनाता हूँ, अतः कुलटा होने के कारण तू अवश्य ही मेरा ग्रास बनेगी।'

यह कहकर वह अपने कठोर नखों से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर के खा गया, इसके बाद यमराज के दूत उस पापिनी को संयमनी पुरी में ले गये, यहाँ यमराज की आज्ञा से उन्होंने अनेकों बार उसे विष्ठा, मूत्र और रक्त से भरे हुए भयानक कुण्डों में गिराया, करोड़ों कल्पों तक उसमें रखने के बाद उसे वहाँ से ले जाकर सौ मन्वन्तरों तक रौरव नरक में रखा, फिर चारों ओर मुँह करके दीन भाव से रोती हुई उस पापिनी को वहाँ से खींचकर दहनानन नामक नरक में गिराया।

उस समय उसके केश खुले हुए थे और शरीर भयानक दिखाई देता था, इस प्रकार घोर नरक यातना भोग चुकने पर वह महा पापिनी इस लोक में आकर चाण्डाल योनि में उत्पन्न हुई, चाण्डाल के घर में भी प्रतिदिन बढ़ती हुई वह पूर्वजन्म के अभ्यास से पूर्ववत् पापों में प्रवृत्त रही फिर उसे कोढ़ और राजयक्ष्मा का रोग हो गया, नेत्रों में पीड़ा होने लगी फिर कुछ काल के पश्चात् वह पुनः अपने निवास स्थान हरिहरपुर को गयी, जहाँ भगवान शिव के अन्तःपुर की स्वामिनी जम्भका देवी विराजमान हैं, वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पवित्र ब्राह्मण का दर्शन किया, जो निरन्तर गीता के तेरहवें अध्याय का पाठ करता रहता था, उसके मुख से गीता का पाठ सुनते ही वह चाण्डाल शरीर से मुक्त हो गयी और दिव्य देह धारण करके स्वर्गलोक में चली गयी।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

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